Book Title: Adi Puran Part 1
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 698
________________ आदिपुराणम् 3 निरञ्जनो जगज्ज्योतिर्निरुक्तोक्तिर नामयः । अचलस्थितिरक्षोभ्यः कूटस्थः स्थाणुरक्षयः ॥११४॥ ६ प्रणीता प्रणेता न्यायशास्त्रकृत् । शास्ता धर्मपतिर्धयों धर्मात्मा धर्मतीर्थकृत् ॥ ११५ ॥ वृषध्वजो वृषाधीशो वृषकेतुर्वृषायुधः । वृषो वृषपतिर्मर्ता वृषभाङ्को वृषोद्भवः ॥ ११६ ॥ हिरण्यनाभूतात्मा भूतभृद् भूतभावनः । प्रभवो विभवो मास्वान् भवो " भावो भवान्तकः ११७ * ६०८ १२६ कहे जाते हैं, बाधा - उपसर्ग आदिसे रहित हैं इसलिए निराबाध १२७ कहलाते हैं, शरीर अथवा मायासे रहित होनेके कारण निष्कल १२८ कहे जाते हैं और तीनों लोकोंके ईश्वर होनेसे भुवनेश्वर १२९ कहलाते हैं ।। ११३ || आप कर्मरूपी अंजनसे रहित हैं इसलिए निरंजन १३० कहलाते हैं, जगत्को प्रकाशित करनेवाले हैं इसलिए जगज्ज्योति १३१ कहे जाते हैं, आपके वचन सार्थक हैं अथवा पूर्वापर विरोधसे रहित हैं इसलिए आप निरुक्तोक्ति १३२ कहलाते हैं, रोगरहित होनेसे अनामय १३३ हैं, आपकी स्थिति अचल है इसलिए अचलस्थिति १३४ कहलाते हैं, आप कभी क्षोभको प्राप्त नहीं होते इसलिए अक्षोभ्य १३५ हैं, नित्य होनेसे कूटस्थ १३६ हैं, गमनागमनसे रहित होनेके कारण स्थाणु १३७ हैं और क्षयरहित होने के कारण अक्षय १३८ हैं ||११४|| आप तीनों लोकोंमें सबसे श्रेष्ठ हैं इसलिए अग्रणी १३९ कहलाते हैं, भव्यजीवों के समूहको मोक्ष प्राप्त करानेवाले हैं इसलिए ग्रामणी १४० हैं, सब जीवोंको हित के मार्ग में प्राप्त कराते हैं इसलिए नेता १४१ हैं, द्वादशांगरूप शास्त्रकी रचना करनेवाले हैं इसलिए प्रणेता १४२ हैं, न्यायशास्त्रका उपदेश देनेवाले हैं इसलिए न्यायशास्त्रकृत् १४३ कहे जाते हैं, हितका उपदेश देनेके कारण शास्ता १४४ कहलाते हैं, उत्तम क्षमा आदि धर्मोंके स्वामी हैं इसलिए धर्मपति १४५ कहे जाते हैं, धर्मसे सहित हैं इसलिए धर्म्य १४६ कहलाते हैं, आपकी आत्मा धर्मरूप अथवा धर्मसे उपलक्षित है इसलिए आप धर्मात्मा १४७ कहलाते हैं और आप धर्मरूपी तीर्थके करनेवाले हैं इसलिए धर्मतीर्थकृत् १४८ कहे जाते हैं ।। ११५ ।। आपकी ध्वजामें वृष अर्थात् बैलका चिह्न है अथवा धर्म ही आपकी ध्वजा है अथवा आप वृषभ चिह्नसे अंकित हैं इसलिए वृपध्वज १४९ कहलाते हैं, आप वृष अर्थात् धर्मके पति हैं इसलिए वृषाधीश १५० कहे जाते हैं, आप धर्मकी पताकास्वरूप हैं इसलिए लोग आपको वृषकेतु १५१ कहते हैं, आपने कर्मरूप शत्रुओंको नष्ट करने के लिए धर्मरूप शस्त्र धारण किये हैं इसलिए आप वृषायुध १५२ कहे जाते हैं, आप धर्मरूप हैं इसलिए वृष १५३ कहलाते हैं, धर्मके स्वामी हैं इसलिए वृषपति १५४ कहे जाते हैं, समस्त जीवोंका भरण-पोषण करते हैं इसलिए भर्ता १५५ कहलाते हैं, वृषभ अर्थात् बैलके चिह्नसे सहित हैं इसलिए वृषभांक १५६ कहे जाते हैं और पूर्व पर्यायोंमें उत्तम धर्म करनेसे ही आप तीर्थकर होकर उत्पन्न हुए हैं इसलिए आप वृषोद्भव १५७ कहलाते हैं ।। ११६|| सुन्दर नाभि होनेसे आप हिरण्यनाभि १५८ कहलाते हैं, आपकी आत्मा सत्यरूप है इसलिए आप भूतात्मा १५९ कहे जाते हैं, आप समस्त जीवोंकी रक्षा करते हैं इसलिए पण्डितजन आपको भूतभृत् १६० कहते हैं, आपकी भावनाएँ बहुत उत्तम हैं, इसलिए आप भूतभावन १६१ कहलाते हैं, आप मोक्षप्राप्तिके कारण हैं अथवा आपका १. प्रामाणिकवचनः । २. - निरामयः - प०, ब० । ३. नित्यः । ४. स्थानशीलः । ५. ग्रामं समुदायं नयतीति । ६. युक्त्यागम । ७. धर्मवर्षणात् । ८. विद्यमानस्वरूपः । ९. प्राणिगणपोषकः । १०. भूतं मङ्गल भावयतीति । ११ भवतीति । १२. भावयतीति भावः ।

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