Book Title: Adi Puran Part 1
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

Previous | Next

Page 700
________________ ६१० आदिपुराणम् 'सहनशीर्षः क्षेत्रशः सहस्राक्षः सहस्रपात् । भूतभव्यभवगर्ता विश्वविद्यामहेश्वरः ॥१२॥ इति दिष्यादिशतम् ॥ स्थविष्ठः स्थविरो' ज्येष्ठः प्रष्ठः प्रेष्ठो वरिष्ठयोः । स्वेच्यो गरिष्ठो' बंहिष्ठः श्रेष्ठोऽणिष्ठो गरिष्ठगीः। "विश्वभृद्विश्वसृ विश्वेट विश्व विश्वनायकः। विश्वाशीविश्वरूपारमा विश्वजिद्विजितान्तकः । १२३॥ विमवो विमयो वीरो विशोको विजरो जरन् । विरागो विरतोऽसङ्गो विविक्तो वीतमत्सरः ॥३३४॥ अनन्त सुखी होनेसे सहस्रशीर्ष १९५ कहलाते हैं, क्षेत्र अर्थात् आत्माको जाननेसे क्षेत्रज्ञ १९६ कहलाते हैं, अनन्त पदार्थोंको जानते हैं इसलिए सहस्राक्ष १९७ कहे जाते हैं, अनन्त बलके धारक हैं इसलिए सहस्रपात् १९८ कहलाते हैं, भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालके स्वामी हैं इसलिए भूतभव्यभवद्भर्ता १९९ कहे जाते हैं, समस्त विद्याओंके प्रधान स्वामी हैं इसलिए विश्वविद्यामहेश्वर २०० कहलाते हैं ।।१२१॥ इति दिव्यादि शतम् । ___ आप समीचीन गुणोंकी अपेक्षा अतिशय स्थूल हैं इसलिए स्थविष्ठ २०१ कहे जाते हैं, ज्ञानादि गुणोंके द्वारा वृद्ध हैं इसलिए स्थविर २०२ कहलाते हैं, तीनों लोकोंमें अतिशय प्रशस्त होनेके कारण ज्येष्ठ २०३ हैं, सबके अग्रगामी होनेके कारण प्रष्ठ.२०४ कहलाते हैं, सवको अतिशय प्रिय हैं इसलिए प्रेष्ठ २०५ कहे जाते हैं, आपकी बुद्धि अतिशय श्रेष्ठ है इसलिए वरिष्ठधी २०६ कहलाते हैं, अत्यन्त स्थिर अर्थात् नित्य हैं इसलिए स्थेष्ठ २०७ कहलाते हैं, अत्यन्त गुरु हैं इसलिए गरिष्ठ २०८ कहे जाते हैं, गुणोंकी अपेक्षा अनेक रूप धारण करनेसे बंहिष्ठ २०९ कहलाते हैं, अतिशय प्रशस्त हैं इसलिए श्रेष्ठ २१० हैं, अतिशय सूक्ष्म होनेके कारण अणिष्ठ २११ कहे जाते हैं और आपकी वाणी अतिशय गौरवसे पूर्ण है इसलिए आप गरिष्ठगीः २१२ कहलाते हैं ॥१२२।। चतुर्गतिरूप संसारको नष्ट करनेके कारण आप विश्वमुट २१३ कहे जाते हैं, समस्त संसारकी व्यवस्था करनेवाले हैं इसलिए विश्वसृट् २१४ कहलाते हैं, सब लोकके ईश्वर हैं इसलिए विश्वेट २१५ कहे जाते हैं, समस्त संसारकी रक्षा करनेवाले हैं इसलिए विश्वमुक् २१६ कहलाते हैं, अखिल लोकके स्वामी हैं इसलिए विश्वनायक २१७ कहे जाते हैं, समस्त संसारमें व्याप्त होकर रहते हैं इसलिए विश्वासी २१८ कहलाते हैं, विश्वरूप अर्थात् केवलज्ञान ही आपका स्वरूप है अथवा आपका आत्मा अनेकरूप है इसलिए आप विश्वरूपात्मा २१९ कहे जाते हैं, सबको जीतनेवाले हैं इसलिए विश्वजित २२० कहे जाते हैं और अन्तक अर्थात् मृत्युको जीतनेवाले हैं इसलिए विजितान्तक २२१ कहलाते हैं ॥१२३।। आपका संसार-भ्रमण नष्ट हो गया है इसलिए विभव २२२ कहलाते हैं, भय दूर हो गया है इसलिए विभय २२३ कहे जाते हैं, अनन्त बलशाली हैं इसलिए वीर २२४ कहलाते हैं, शोकरहित हैं इसलिए विशोक २२५ कहे जाते हैं, जरा अर्थात् बुढ़ापासे रहित हैं इसलिए विजर २२६ कहलाते हैं, जगत्के सब जीवोंमें प्राचीन हैं इसलिए जरन् २२७ कहे जाते हैं, रागरहित हैं इसलिए विराग २२८ कहलाते हैं, समस्त १. अनन्तसुखी। २. आत्मज्ञः । ३. अनन्तदी। ४. अनन्तवीर्यः । ५. अतिशयेन स्थूलः । ६. वृद्धः । ७. अग्रगामी । ८. अतिशयेन प्रियः । ९. अतिशयेन वरबुद्धिः । १०. अतिशयेन स्थिरः । ११. अतिशयेन गुरुः । १२. अतिशयेन बहुः । १३. अतिशयेनाणुः सूक्ष्म इत्यर्थः । १४. विश्वपालकः। विश्वमुट-ल.। १५. वृद्ध ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782