Book Title: Adi Puran Part 1
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

Previous | Next

Page 704
________________ आदिपुराणम् अगण्यः पुण्यधीर्गुण्यः पुण्यकृत् पुण्यशासनः । धर्मारामो गुणप्रामः पुण्यापुण्यनिरोधकः ॥१३७॥ पापापेो विपापात्मा विपाप्मा वीतकल्मषः । निर्द्वन्द्वो' निर्मदः शान्तो निर्मोहो निरुपद्रवः ॥ १३८॥ निर्निमेषो निराहारो निष्क्रियो निरुपप्लवः । निष्कलङ्को निरस्तैना निर्धूतागा निरास्रवः ॥१३९॥ विशालो विपुलज्योतिस्तुलोऽचिन्त्यवैभवः । सुसंवृतः सुगुप्तात्मा सुभुत् सुनयतत्त्ववित् ॥१४०॥ ६१४ शरण्य ३३३ कहे जाते हैं, आपके वचन पवित्र हैं इसलिए पूतवाक् ३३४ कहलाते हैं, स्वयं पवित्र हैं इसलिए पूत ३३५ कहे जाते हैं, श्रेष्ठ हैं इसलिए वरेण्य ३३६ कहलाते हैं और पुण्यके अधिपति हैं इसलिए पुण्यनायक ३३७ कहे जाते हैं || १३६ || आपको गणना नहीं हो सकती अर्थात् आप अपरिमित गुणोंके धारक हैं इसलिए अगण्य ३३८ कहलाते हैं, पवित्र बुद्धि के धारक होनेसे पुण्यधी ३३९ कहे जाते हैं, गुणोंसे सहित हैं इसलिए गुण्य ३४० कहलाते हैं, पुण्यको करनेवाले हैं इसलिए पुण्यकृत् ३४१ कहे जाते हैं, आपका शासन पुण्यरूप अर्थात् पवित्र है इसलिए आप पुण्यशासन ३४२ माने जाते हैं, धर्मके उपवनस्वरूप होनेसे धर्माराम ३४३ कहे जाते हैं, आपमें अनेक गुणोंका ग्राम अर्थात् समूह पाया जाता है इसलिए आप गुणग्राम ३४४ कहलाते हैं, आपने शुद्धोपयोग में लीन होकर पुण्य और पाप दोनोंका निरोध कर दिया है इसलिए आप पुण्यापुण्यनिरोधक ३४५ कहे जाते हैं ।। १३७|| आप हिंसादि पापों से रहित हैं इसलिए पापापेत ३४६ माने गये हैं, आपकी आत्मासे समस्त पाप विगत हो गये हैं इसलिए आप विपापात्मा ३४७ कहे जाते हैं, आपने पापकर्म नष्ट कर दिये हैं इसलिए विपाप्मा ३४८ कहलाते हैं, आपके समस्त कल्मष अर्थात् राग-द्वेष आदि भाव कर्मरूपी मल नष्ट हो चुके हैं. इसलिए वीतकल्मष ३४९ माने जाते हैं, परिग्रहरहित होनेसे निर्द्वन्द्व ३५० हैं, अहंकारसे रहित होने के कारण नर्मद ३५? कहलाते हैं, आपका मोह निकल चुका है, इसलिए आप निर्मोह ३५२ हैं और उपद्रव उपसर्ग आदिसे रहित हैं इसलिए निरुपद्रव ३५३ कहलाते हैं ।।१३८।। आपके नेत्रोंके पलक नहीं झपते इसलिए आप निर्निमेष ३५४ कहलाते हैं, आप कवलाहार नहीं करते इसलिए निराहार ३५५ हैं, सांसारिक क्रियाओंसे रहित हैं इसलिए निष्क्रिय ३५६ हैं, बाधारहित हैं इसलिए निरुपप्लव ३५८ हैं, कलंकरहित होनेसे निष्कलंक ३५९ हैं, आपने समस्त एनस् अर्थात् पापों को दूर हटा दिया है इसलिए निरस्तैना ३६० कहलाते हैं, समस्त अपराधोंको आपने दूर कर दिया है इसलिए निर्धूतागस् ३६१ कहे जाते हैं, और कर्मोंके आस्रवसे रहित होनेके कारण निरास्रव ३६२ कहलाते हैं || १३९ || आप सबसे महान् हैं इसलिए विशाल ३६३ कहे जाते हैं, केवलज्ञानरूपी विशाल ज्योतिको धारण करनेवाले हैं इसलिए विपुलज्योति ३६४ माने जाते हैं, उपमारहित होनेसे अतुल ३६५ हैं, आपका वैभव अचिन्त्य है इसलिए अचिन्त्यवैभव ३६६ कहलाते हैं, आप नवीन कर्मोंका आस्रव रोककर पूर्ण संवर कर चुके हैं इसलिए सुसंवृत ३६७ कहलाते हैं, आपकी आत्मा अतिशय सुरक्षित है अथवा मनोगुप्ति आदि गुप्तियोंसे युक्त है इसलिए विद्वान् लोग आपको सुगुप्तात्मा ३६८ कहते हैं, आप समस्त पदार्थोंको अच्छी तरह जानते हैं इसलिए सुभुत् ३६९ कहलाते हैं और आप समीचीन नयोंके यथार्थ रहस्यको जानते हैं १. निष्परिग्रहः । २. निर्धूताङ्गो - इ० । ३. सुष्ठु ज्ञाता । सुभृत् इति पाठान्तरम् ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782