Book Title: Adi Puran Part 1
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 697
________________ पञ्चविंशतितम पर्व विभावसु खंभूष्णुः स्वयंभृष्णुः पुरातनः । परमात्मा परं ज्योतिस्त्रिजगत्परमेश्वरः ॥११०॥ इति श्रीमदादिशतम् । दिव्यभाषापतिर्दिन्यः पूतवाक्पूतशासनः । पूतात्मा परमज्योति: धर्माध्यक्षो दमीश्वरः ॥११॥ श्रीपतिमंगवानहनरजाविरजाः शुचिः । तीर्थकृत् केवलीशानः पूजाहः स्नातकोऽमलः ॥११२॥ अनन्तदीप्तिानात्मा स्वयंबुद्धः प्रजापतिः । मुक्तः शक्तो निराबाधो निष्कलो भुवनेश्वरः ॥११३॥ हैं, कभी आपका व्यय अर्थात् नाश नहीं होता इसलिए आप अव्यय ९३ कहलाते हैं ।।१०९।। आप कर्मरूपी ईधनको जलानेके लिए अग्निके समान हैं अथवा मोहरूपी अन्धकारको नष्ट करनेके लिए सूर्यके समान हैं, इसलिए विभावसु ९४ कहलाते हैं, आप संसारमें पुनः उत्पन्न नहीं होंगे इसलिए असम्भूष्णु ९५ कहे जाते हैं, आप अपने-आप ही इस अवस्थाको प्राप्त हुए हैं इसलिए स्वयम्भूष्णु ९६ है, प्राचीन हैं-द्रव्यार्थिक नयको अपेक्षा अनादिसिद्ध हैं इसलिए पुरातन ९७ कहलाते हैं, आपकी आत्मा अतिशय उत्कृष्ट है इसलिए आप परमात्मा ९८ कहे जाते हैं, उत्कृष्ट ज्योतिःस्वरूप हैं इसलिए परंज्योति ९९ कहलाते हैं, तीनों लोकोंके ईश्वर हैं, इसलिए त्रिजगत्परमेश्वर १०० कहे जाते हैं ।।११०॥ - आप दिव्य-ध्वनिके पति हैं इसलिए आपको दिव्यभापापति १०१ कहते हैं, अत्यन्त सुन्दर हैं इसलिए आप दिव्य १०२ कहलाते हैं, आपके वचन अतिशय पवित्र हैं इसलिए आप पूतवाक् १०३ कहे जाते हैं, आपका शासन पवित्र होनेसे आप पूतशासन १०४ कहलाते हैं, आपकी आत्मा पवित्र है इसलिए आप पूतात्मा १०५ कहे जाते हैं, उत्कृष्ट ज्योतिस्वरूप हैं इसलिए परमज्योति १०६ कहलाते हैं, धर्मके अध्यक्ष हैं इसलिए धर्माध्यक्ष १०७ कहे जाते हैं, इन्द्रियोंको जीतनेवालोंमें श्रेष्ठ हैं इसलिए दमीश्वर १०८ कहलाते हैं ॥११॥ मोक्षरूपी लक्ष्मीके अधिपति हैं इसलिए श्रीपति १०९ कहलाते हैं, अष्टप्रातिहार्यरूप उत्तम ऐश्वर्यसे सहित हैं इसलिए भगवान् ११० कहे जाते हैं, सबके द्वारा पूज्य हैं इसलिए अर्हन् १११ कहलाते हैं, कर्मरूपी धूलिसे रहिता हैं इसलिए अरजाः ११२ कहे जाते हैं, आपके द्वारा भव्य जीवोंके फर्ममल दूर होते हैं अथवा आप ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण कर्मसे रहित हैं इसलिए विरजाः ११३ कहलाते हैं, अतिशय पवित्र हैं इसलिए शुचि ११४ कहे जाते हैं, धर्मरूप तीर्थके करनेवाले हैं इसलिए तीर्थकत् ११५ कहलाते हैं, केवलबानसे सहित होनेके कारण केवली ११६ कहे जाते हैं, अनन्त सामर्थ्यसे युक्त होने के कारण ईशान ११७ कहलाते हैं, पूजाके योग्य होनेसे पूजार्ह ११८ हैं, घातियाकर्मीक नष्ट होने अथवा पूर्णज्ञान होनेसे आप स्नातक ११९ कहलाते हैं, आपका शरीर मलरहित है अथवा आत्मा राग-द्वेष आदि दोषोंसे वर्जित है इसलिए आप अमल १२० कहे जाते हैं ॥११२॥ आप केवलज्ञानरूपी अनन्त दीप्ति अथवा शरीरकी रिमित प्रभाके धारक है इसलिए अनन्तदीप्ति १२१ कहलाते हैं, आपकी आत्मा ज्ञानस्वरूप है इसलिए आप ज्ञानात्मा १२२ हैं, आप स्वयं संसारसे विरक्त होकर मोक्षमार्गमें प्रवृत्त हुए हैं अथवा आपने गुरुओंकी सहायताके बिना ही समस्त पदार्थोंका ज्ञान प्राप्त किया है इसलिए स्वयम्बुद्ध १२३ कहलाते हैं, समस्त जनसमूहके रक्षक होनेसे आप प्रजापति १२४ हैं, कर्मरूप बन्धनसे रहित हैं इसलिए मुक्त १२५ कहलाते हैं, अनन्त बलसे सम्पन्न होनेके कारण शक्त १. विभा प्रमा बस्मिन् वसतीति । दहन इति वा। २. महेश्वर:-इ०, प० । ३. विशिष्टज्ञानी । ४. समाप्तवेदः, सम्पूर्णज्ञानीत्यर्थः ।

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