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चतुर्विंशतितमं पर्व
५९१ स लेभे गुरुमाराध्य सम्यग्दर्शननायकाम् । व्रतशीलाबलों मुक्तेः कण्ठिकामिव निर्मलाम् ॥१६५॥ दिदीपे लब्धसंस्कारो गुरुतो भरतेश्वरः । यथा महाकरोद्भूतो मणिः संस्कारयोगतः ॥१६६॥ 'त्रिदशासुरमानां सा समा समुनीश्वरा । पीतसद्धर्मपीयूषा परामाप तिं तदा ॥१६७॥ धनध्वनिमिव श्रुत्वा विमोर्दिव्यध्वनि तदा । चातका इव भव्योधाः परं प्रमदमाययुः ॥१६॥ दिव्यध्वनिमनुश्रुत्य जलदस्तनितोपमम् । अशोकविटपारूढाः सस्वनुर्दिव्यबहिणः ॥१६९॥ सप्लाषिमिवासाच तंत्रावारं प्रमास्वरम् । विशुद्धिं भव्यरत्नानि भेजुर्दिन्यप्रभा स्वरम् ॥१७॥ योऽसौ पुरिमतालेशो भरतस्यानुजः कृती। प्राज्ञः शूरः शुवि/रो धौरेयो मानशालिनाम् ॥१७॥ श्रीमाम् वृषभसेनाख्यः प्रज्ञापारमितो वशी। स संबुध्य गुरोः पाश्वें दीक्षित्वाभूद् गणाधिपः ॥१७२॥ स सप्तलिमिरिद्धिस्तपोदीप्स्यावृतोऽमितः । व्यदीपि शरदीवार्को धूतान्धतमसोदयः ॥ १७३॥ स श्रीमान् कुरुशार्दूलः श्रेयान् सोमप्रभोऽपि च । नृपाश्चान्ये तदोपासदीक्षा गणभृतोऽभवन् ॥१७॥ भरतस्यानुजा ब्राह्मी दीक्षिस्वा गुर्वनुग्रहात् । गणिनीपदमार्याणां सा भेजे पूजितामरैः ॥१७॥
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अतिशय सुशोभित हो रहे थे ॥१६४॥ भरतने, गुरुदेवको आराधना कर, जिसमें सम्यग्दर्शनरूपी प्रधान मणि लगा हुआ है और जो मुक्तिरूपी लक्ष्मीके निर्मल कण्ठहारके समान जान पड़ती थी ऐसी व्रत और शीलोंकी निर्मल माला धारण की थी। भावार्थ-सम्यग्दर्शनके साथ पाँच अणुव्रत और सात शक्तित्रत धारण किये ये तथा उनके अतिचारोंका बचाव किया था १६५।। जिस प्रकार किसी बड़ी खानसे निकला हुआ मणि संस्कारके योगझे देदीप्यमान होने लगता है उसी प्रकार महाराज भरत भी गुरुदेवसे ज्ञानमय संस्कार पाकर सुशोभित होने लगे थे ॥१६६।। उस समय मुनियोंसे सहित वह देव-दानव और मनुष्योंकी सभा उत्तम धर्मरूपी अमृतका पान कर परम सन्तोषको प्राप्त हुई थी ॥१६७। जिस प्रकार मेघोंकी गर्जना सुनकर चातक पक्षी परम आनन्दको प्राप्त होते हैं उसी प्रकार उस समय भगवान्की दिव्यध्वनि सुनकर भव्य जीवोंके समूह परम आनन्दको प्राप्त हो रहे थे ॥१६८|| मेघकी गर्जनाके समान भगवानकी दिव्य ध्वनिको सुनकर अशोकवृक्षकी शाखाओंपर बैठे हुए दिव्य मयर भी आनन्दसे शब्द करने लग गये थे ॥१६९।। सबकी रक्षा करनेवाले और अग्निके समान देदीप्यमान भगवानको प्राप्त कर भव्य जीवरूपी रल दिव्यकान्तिको धारण करनेवाली परम विशुद्धिको प्राप्त हुए थे॥१७०।। उसी समय जो पुरिमसाठ नगरका स्वामी था, भरतका छोटा भाई था, पुण्यवान्, विद्वान्, शूर-वीर, पवित्र, धीर, स्वाभिमान करनेवालोंमें श्रेष्ठ, श्रीमान्, बुद्धिके पारको प्राप्त-अतिशय बुद्धिमान और जितेन्द्रिय था तथा जिसका नाम वृषभसेन था उसने भी भगवान्के समीप सम्बोध पाकर दीक्षा धारण कर ली और उनका पहला गणधर हो गया ॥१७१-१७२।। सात ऋद्धियोंसे जिनकी विभूति अतिशय देदीप्यमान हो रही है, जो चारों ओरसे तपकी दीप्तिसे घिरे हुए हैं और जिन्होंने अज्ञानरूपी गाढ़ अन्धकारके उदयको नष्ट कर दिया है ऐसे वे वृषभसेन गणधर शरद् ऋतुके सूर्यके समान अत्यन्त देदीप्यमान हो रहे थे ॥१७।। उसी समय श्रीमान् और कुरुवंशियोंमें श्रेष्ठ महाराज सोमप्रभ, श्रेयान्स
मार, तथा अन्य राजा लोग भी दीक्षा लेकर भगवानके गणधर हुए थे ॥१७४। भरतकी छोटी बहन ब्राशी भी गुरुदेवकी कृपासे दीक्षित होकर आर्याओंके बीच में गणिनी (स्वामिनी) के पदको प्राप्त हुई थी। वह ब्राझी सब देवोंके द्वारा पूजित हुई थी ॥१७५।। उस समय वह
१. प्रभासु कान्तिषु अरम् अत्यर्थम् । २. परिमतारीशो-त० । ३. कुरुवंशश्रेष्ठः । ४. आर्यिकाणाम् ।