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पञ्चविंशतितमं पर्व 'अस्वेदमलमाभाति सुगन्धि शुभलक्षणम् । सुसंस्थानमरक्ता सृग्वपुर्वस्थिरं तव ॥३३॥ सौरूप्यं नयनाहादि सौभाग्यं चित्तरम्जनम् । सुवाक्रवं जगदानन्दि तवासाधारणा गुणाः ॥३४॥ अमेयमपि ते वीर्य मितं देहे प्रभान्विते । स्वल्पेऽपि दर्पणे बिम्ब माति स्ताम्बेरम ननु ॥३५॥ त्वदास्थानस्थितोद्देशं परितः शतयोजनम् । सुलभाशनपानादि स्वन्महिम्नोपजायते ॥३६॥ गगनानुगतं यानं तवासीद् भुबमस्पृशत् । देवासुरं भरं सोढुमक्षमा धरणीति नु ॥३७॥ क्रूरैरपि मृगहिरहन्यन्ते जातु नाजिनः । सद्धर्मदेशनोयुक्ते स्वयि संजीवनौषधे ॥३८॥ न भुक्तिः क्षीणमोहस्य तवानन्तसुखोदयात् । क्षुरक्लेशबाधितो जन्तुः कवलाहारभुग्भवेत् ॥३९॥ असवद्योदयाद् भुक्ति त्वयि यो योजयेदधीः । "मोहानिलप्रतीकारे तस्यान्वेष्यं 'जरघृतम् ॥१०॥ असद्वेद्यविषं घाति विध्वंसध्वस्तशक्तिकम् । स्वय्यकिंचित्करं मन्त्रशक्त्येवापबलं विषम् ॥४॥
पनेका माहात्म्य ही ऐसा है॥३२॥ हे भगवन् , जो पसीना और मलमूत्रसे रहित है, सुगन्धित है, शुभ लक्षणोंसे सहित है, समचतुरस्र संस्थान है, जिसमें लाल रक्त नहीं है और जो वनके समान स्थिर है ऐसा यह आपका शरीर अतिशय सुशोभित हो रहा है ॥३३॥ हे देव, नेत्रोंको आनन्दित करनेवाली सुन्दरता, मनको प्रसन्न करनेवाला सौभाग्य और जगत्को हर्षित करनेवाली मीठी वाणी ये आपके असाधारण गुण हैं अर्थात् आपको छोड़कर संसारके अन्य किसी प्राणीमें नहीं रहते ॥३४॥ हे भगवन् , यद्यपि आपका वीर्य अपरिमित है तथापि यह आपके परिमित अल्प परिमाणवाले शरीरमें समाया हुआ है सो ठीक ही है क्योंकि हाथीका प्रतिबिम्ब छोटेसे दर्पणमें भी समा जाता है ॥३५।।
हे नाथ, जहाँ आपका समवसरण होता है उसके चारों ओर सौ-सौ योजन तक आपके माहात्म्यसे अन्न-पान आदि सब सुलभ हो जाते हैं ॥३६॥ हे देव, यह पृथिवी समस्त सुर और असुरोंका भार धारण करनेमें असमर्थ है इसलिए ही क्या आपका समवसरणरूपी विमान पृथिवीका स्पर्श नहीं करता हुआ सदा आकाशमें ही विद्यमान रहता है ।॥३७॥ हे भगवन् , संजीवनी ओषधिके समान आपके समीचीन धर्मका उपदेश देने में तत्पर रहते हुए सिंह, व्याघ्र आदि कर हिंसक जीव भो दूसरे प्राणियोंकी कभी हिंसा नहीं करते हैं ॥३८॥ हे प्रभो, आपके मोहनीय कर्मका क्षय हो जानेसे अत्यन्त सुखको उत्पत्ति हुई है इसलिए आपके कवलाहार नहीं है सो ठीक ही है, क्योंकि क्षुधाके क्लेशसे दुखी हुए जीव ही कवलाहार भोजन करते हैं ॥३९॥ हे जिनेन्द्र, जो मूर्ख असातावेदनीय कर्मका उदय होनेसे आपके भी कवलाहारकी योजना करते हैं अर्थात् यह कहते हैं कि आप भी कवलाहार करते हैं क्योंकि आपके असातावेदनीय कर्मका उदय है उन्हें मोहरूपी वायुरोगको दूर करने के लिए पुराने घीकी खोज करनी चाहिए । अर्थात् पुराने घीके लगानेसे जैसे सन्निपात-वातज्वर शान्त हो जाता है उसी तरह अपने मोहको दूर करने के लिए किसी पुराने अनुभवी पुरुषका स्नेह प्राप्त करना होगा ॥४०॥ हे देव, मन्त्रकी शक्तिसे जिसका बल नष्ट हो गया है ऐसा विष जिस प्रकार कुछ भी नहीं कर सकता है उसी प्रकार घातियाकमोंके नष्ट हो जानेसे जिसकी शक्ति नष्ट हो गयी है ऐसा
१. स्वेदमलरहितम् । २. गौररुधिरम् । ३. प्रमाति । ४. स्तम्भरमसंबन्धि । ५. तव समवसरणस्थितप्रदेशस्य समन्तात् । ६. गमनम् । ७. देवासुरभरं-ल०। ८. तवात्यन्त-इ०, ल० । ९. असातावेदनीयो- .. दयात् । १०. अज्ञानवातरोगप्रतीकारे । ११. मग्यम् । १२. चिरन्तनाज्यम् । १३. अपगतबलम् ।