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पश्चविंशतितमं पर्व
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अयमी रूपसौन्दर्य कान्तिदीप्यादयो गुणाः । स्पृहणीयाः सुरेन्द्राणां तव हेयाः क्रिलाद्भुतम् ॥५१॥ * गुणिनं स्वामुपासीना निर्धूतगुण बन्धनाः । स्वया सारूप्य मायान्ति स्वामिच्छन्दं नु शिक्षितुः ॥५२॥ अयं मन्दानिलोद्धृतचलच्छाखाकरोत्करैः । श्रीमानशोकवृक्षस्ते नृत्यतीवात्तसम्मदः ॥५३॥ चलत्क्षीरोदवीथीमिः स्पर्धा कर्तुमिवामितः । चामरौधाः पतन्ति त्वां मरुद्भिलिख्या धुताः ॥ ५४ ॥ मुक्तालम्बनविभ्राजि भ्राजते विधुनिर्मलम् । छत्रत्रयं तवोन्मुक्तप्रारोहमिव खाणे ॥ ५५ ॥ सिंहैरूढं विभातीदं तब विष्टरमुच्चकैः । रत्नांशुभिर्भवत्स्पर्शान्मुक्तहर्षाङ्कुरैरिव ॥ ५६ ॥ ध्वनम्ति मधुरध्वानाः सुरदुन्दुभिकोटयः । घोषयम्थ्य इवापूर्य रोदसी' स्वज्जयोत्सवम् ॥५७॥ तव दिव्यध्वनिं धीरमनुकर्तुमिवोद्यताः । ध्वनम्ति सुरसूर्याणां कोटयोऽर्ध त्रयोदश ॥५८॥ सुरैरियं नमोरङ्गात् पौष्पी वृष्टिर्वितम्यते । तुष्टया स्वर्गलक्ष्म्येव चोदितैः कल्पशाखिभिः ॥५९॥ तव देहप्रमोत्सर्पः समाक्रामन्नमोऽभितः । शश्वत्प्रभातमास्थानी जनानां जनयस्थलम् ॥ ६० ॥
पास आकर आपको स्वीकार किया है ॥५०॥ हे देव, यह भी एक आश्चर्यकी बात है कि जिनकी प्राप्तिके लिए इन्द्र भी इच्छा किया करते हैं ऐसे ये रूप-सौन्दर्य, कान्ति और दीप्ति आदि गुण आपके लिए हेय हैं अर्थात् आप इन्हें छोड़ना चाहते हैं ।। ५१ ।। हे प्रभो, अन्य सब गुणरूपी बन्धनोंको छोड़कर केवल आपकी उपासना करनेवाले गुणी पुरुष आपकी ही सदृशता प्राप्त हो जाते हैं सो ठीक ही है क्योंकि स्वामीके अनुसार चलना ही शिष्योंका कर्त्तव्य है ॥५२॥ हे स्वामिन्, आपका यह शोभायमान अशोकवृक्ष ऐसा जान पड़ता है मानो मन्दमन्द वायुसे हिलती हुई शाखारूपी हाथोंके समूहोंसे हर्षित होकर नृत्य ही कर रहा हो ॥ ५३ ॥ हे नाथ, देवोंके द्वारा लीलापूर्वक धारण किये हुए चमरोंके समूह आपके दोनों ओर इस प्रकार ढोरे जा रहे हैं मानो वे क्षीरसागर की चंचल लहरोंके साथ स्पर्धा ही करना चाहते हों ॥ ५४ ॥ हे भगवन्, चन्द्रमाके समान निर्मल और मोतियोंकी जालीसे सुशोभित आपके तीन क्षेत्र आकाशरूपी आँगनमें ऐसे अच्छे जान पड़ते हैं मानो उनमें अँकूरे ही उत्पन्न हुए हों ॥५५॥ हे देव, सिंहोंके द्वारा धारण किया हुआ आपका यह ऊँचा सिंहासन रत्नोंकी किरणोंसे ऐसा सुशोभित हो रहा है मानो आपके स्पर्शसे उसमें हर्षके रोमांच ही उठ रहे हों || ५६|| हे स्वामिन, मधुर शब्द करते हुए जो देवोंके करोड़ों दुन्दुभि बाजे बज रहे हैं वे ऐसे जान पड़ते हैं मानो आकाश और पातालको व्याप्त कर आपके जयोत्सवकी घोषणा ही कर रहे हों ||१७|| हे प्रभो, जो देवोंके साढ़े बारह करोड़ दुन्दुभि आदि बाजे बज रहे हैं वे आपकी गम्भीर दिव्यध्वनिका अनुकरण करनेके लिए ही मानो तत्पर हुए हैं ॥५८॥ आकाशरूपी रंग-भूमिसे जो देव लोग यह पुष्पोंकी वर्षा कर रहे हैं वह ऐसी जान पड़ती है मानो सन्तुष्ट हुई स्वर्गलक्ष्मीके द्वारा प्रेरित हुए कल्पवृक्ष ही वह पुष्पवर्षा कर रहे हों ॥ ५९ ॥ हे भगवन्, आकाशमें चारों ओर फैलता हुआ यह आपके शरीरका प्रभामण्डल समवसरणमें बैठे हुए मनुष्योंको सदा प्रभातकाल उत्पन्न करता रहता है. अर्थात् प्रातःकालकी
१. दीप्तिः तेजः । २. गणिनस्त्वा द०, ६० । गुणिनस्त्या -ल० । ३. निर्धूतं गुणबन्धनं रज्जुरहितबन्धनं यैस्ते । निरस्त कर्मबन्धना इत्यर्थः । ४. समानरूपताम् । ५. भर्तुः प्रतिनिधि । ६. शिष्यस्य । शिक्ष विद्योपादाने । ७. देवैः । ८. धूताः ल० । विजिताः । ९. द्यावापृथिव्यो । १०. त्रयोदशमर्थं येषां ते । सार्द्धद्वादशकोटय इत्यर्थः । ११. जनयत्ययम् - द०, इ० । जनयत्यदः -ल० ।