Book Title: Adi Puran Part 1
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

Previous | Next

Page 688
________________ ५९८ आदिपुराणम् असवेद्योदयो घातिसहकारिष्यपायतः । स्वयकिंचिस्करो नाथ सामग्या हि फलोदयः ॥४२॥ नेतयो नोपसर्गाश्च प्रभवन्ति स्वयीशिनि । जगतां पालक हेलाक्षालिताहः कलङ्कके ॥४३॥ त्वय्यनन्तमुखो सर्पस्केवलामललोचने । चातुरास्यमिदं युक्तं नष्टघातिचतुष्टये ॥४४॥ सर्ववियेश्वरो योगी चतुरास्यस्त्वमदारः । सर्वतोऽक्षिमयं ज्योतिस्तन्वानों भास्यधीशितः ॥४५॥ अच्छायस्वमनुन्मेषनिमेषत्वं च ते वपुः । धत्ते तेजोमयं दिव्यं परमौदारिकाह्वयम् ॥४६॥ बिभ्राणोऽप्यध्यधिच्छन मच्छाया"स्थमीक्ष्यसे । महतां चेष्टितं चित्रमययोजस्तवेदशम् ॥४७॥ निमेषापायधीराक्षं तव वक्त्राब्जमीक्षितुम् । "स्वयेव नयनस्पन्दो नूनं देवैश्च संहृतः ॥१८॥ नखकेशमितावस्था तवाविष्कुरुते विमो । रसादिविलयं देहे विशुद्धस्फटिकामले ॥४९॥ इत्युदारैर्गुणरेमिस्स्वमनन्यत्रमाविभिः । स्वयमेत्य वृतो नूनमदृष्टशरणान्तरः ॥५०॥ - --- - -- -- असातावेदनीयरूपी विष आपके विषयमें कुछ भी नहीं कर सकता ॥४१॥ हे नाथ, घातियाकर्मरूपी सहकारी कारणोंका अभाव हो जानेसे असातावेदनीयका उदय आपके विषयमें अकिंचित्कर है अर्थात् आपका कुछ नहीं कर सकता, सो ठीक ही है क्योंकि फलका उदय सब सामग्री इकट्ठी होनेपर ही होता है ॥४२॥ हे ईश, आप जगत्के पालक हैं और अपने लीलामात्रसे ही पापरूपी कलंक धो डाले हैं, इसलिए आपपर न तो ईतियाँ अपना प्रभुत्व जमा सकती हैं और न उपसर्ग ही। भावार्थ-आप ईति, भीति तथा उपसर्गसे रहित हैं ॥४३।। हे भगवन् , यद्यपि आपका केवलज्ञानरूपी निर्मल नेत्र अनन्तमुख हो अर्थात् अनन्तज्ञेयोंको जानता हुआ फैल रहा है फिर भी चूँकि आपके चार घातियाकर्म नष्ट हो गये हैं इसलिए आपके यह चातुरास्य अर्थात् चार मुखोंका होना उचित ही है ॥४४॥ हे अधीश्वर, आप सब विद्याओंके स्वामी हैं, योगी हैं, चतुर्मुख हैं, अविनाशी हैं और आपकी आत्ममय केवलज्ञानरूपी ज्योति चारों ओर फैल रही है इसलिए आप अत्यन्त सुशोभित हो रहे हैं ।।४५।। हे भगवन् , तेजोमय और दिव्यस्वरूप आपका यह परमौदारिक शरीर छायाका अभाव तथा नेत्रोंकी अनुन्मेष वृत्तिको धारण कर रहा है अर्थात् आपके शरीरकी न तो छाया ही पड़ती है और न नेत्रोंके पलक ही झपते हैं ॥४६॥ हे नाथ, यद्यपि आप तीन छत्र धारण किये हुए हैं तथापि आप छायारहित ही दिखायी देते है, सो ठीक ही है क्योंकि महापुरुषोंकी चेष्टाएँ आश्चर्य करनेवाली होती हैं अथवा आपका प्रताप ही ऐसा है ।।४७॥ हे स्वामिन् , पलक न झपनेसे जिसके नेत्र अत्यन्त निश्चल हैं ऐसे आपके मुखरूपी कमलको देखने के लिए ही देवोंने अपने नेत्रोंका संचलन आपमें ही रोक रखा है । भवार्थ-देवोंके नेत्रोंमें पलक नहीं झपते सो ऐसा जान पड़ता है मानो देवोंने आपके सुन्दर मुखकमलको देखनेके लिए ही अपने पलकोंका झपाना बन्द कर दिया हो॥४८॥ हे भगवन् , आपके नख और केशोंकी जो परिमित अवस्था है वह आपके विशद्ध स्फटिकके समान निर्मल शरीर में रस आदिके अभावको प्रकट करती है। भावार्थ-आपके नख और केश ज्योंके-त्यों रहते हैं-उनमें वृद्धि नहीं होती है, इससे मालूम होता है कि आपके शरीर में रस, रक्त आदिका अभाव है ।। ४९ ॥ इन प्रकार ऊपर कहे हुए तथा जो दूसरी जगह न पाये जायें ऐसे आपके इन उदार गुणोंने दूसरी जगह घर न देखकर स्वयं आपके १. त्वयाशितः ल० । २. पालके सति । ३. सुखोत्सर्पत्-द०, इ०, ल०, ५०,स०। ४. चतुरास्यत्वम् । ५. नष्टे घाति-ल., इ०, ८०। ६. आत्ममयम् । ७. तवातोभास्य-ल.। ८. भो अधीश्वर । ९. छत्रस्योपर्युपरिच्छयम् । असामीप्यऽयोध्युपरीति द्विर्भावः । १०. छायारहितशरीरो भूत्वा । ११. त्वग्येव-ल०, इ० ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782