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पञ्चविंशतितमं पर्व
गते भरतराजौं दिव्यभाषोपसंहृतौ'। निवातस्तिमितं वार्षिमिवानाविष्कृतध्वनिम् ॥१॥ धर्माम्नुवर्षसंसिक्तजगज्जनवनइमम् । प्रायनमिवोद्वान्त वृष्टिमृत्सृष्टनिःस्वनम् ॥२॥ कल्पद्रुममिवामीष्टफलविश्राण नोयतम् । स्वपादाभ्यर्णविश्रान्तत्रिजगज्जनमूर्जितम् ॥३॥ विवस्वन्तमियोद्धतमोहान्धतमसोदयम् । नवकेवललम्धीदकरोत्करविराजितम् ॥४॥ महाकरमिवोद्भूतगुणरत्नोच्च याचितम् । भगवन्तं जगएकान्तमचिन्त्यानन्तबैमवम् ॥५॥ वृतं श्रमणसचेन चतुर्धा भेदमीयुषा । चतुर्विध वनामोगपरिष्कृतमिवाद्रिपम् ॥६॥ प्रातिहार्याष्टकोपेत मिडकल्याणपत्रकम् । चतुस्त्रिंशदतीशेषे रिदि त्रिजगत्प्रभुम् ॥७॥ प्रपश्यन् विकन्नेत्रसहस्रः प्रीतमानसः । सौधर्मेन्द्रः स्तुति कर्तुमथारेभे समाहितः ॥८॥ स्तोष्ये स्वां परमं ज्योतिर्गुणरत्नमहाकरम् । मतिप्रकर्षहीनोऽपि केवलं भक्तिचोदितः ॥९॥ स्वाममिष्टवतां भक्त्या विशिष्टाः फलसंपदः । स्वयमाविर्मवन्तीति निश्चित्य स्वां जिनस्तुवे ॥१०॥ स्तुतिः पुण्यगुणोत्कीर्तिः स्तोता भन्यः प्रसनधीः । निष्ठितार्थो भवान् स्तुत्यः फलं नैःश्रेयसं सुखम्॥१॥
अथानन्तर-राजर्षि भरतके चले जाने और दिव्य ध्वनिके बन्द हो जानेपर वायु बन्द होनेसे निश्चल हुए समुद्रके समान जिनका शब्द बिलकुल बन्द हो गया है। जिन्होंने धर्मरूपी जलकी वर्षा के द्वारा जगतके जीवरूपी वनके वृक्ष सींच दिये हैं अतएव जो वर्षा कर चकनेके बाद शब्दरहित हुए वर्षाऋतुके बादलके समान जान पड़ते हैं, जो कल्पवृक्षके समान अभीष्ट फल देने में तत्पर रहते हैं, जिनके चरणोंके समीपमें तीनों लोकोंके जीव विश्राम लेते हैं, जो अनन्त बलसे सहित हैं । जिन्होंने सूर्यके समान मोहरूपी गाढ़ अन्धकारके उदयको नष्ट कर दिया है, और जो नव केवललब्धिरूपी देदीप्यमान किरणोंके समूहसे सुशोभित हैं। जो किसी बढ़ी भारी खानके समान उत्पन्न हुए गुणरूपी रत्नोंके समूहसे व्याप्त हैं, भगवान हैं, जगत्के अधिपति हैं, और अचिन्त्य तथा अनन्त वैभवको धारण करनेवाले हैं। जो चार प्रकारके श्रमण संघसे घिरे हुए हैं और उनसे ऐसे जान पड़ते हैं मानो भद्रशाल आदि चारों वनोंके विस्तारसे घिरा हुआ सुमेरु पर्वत ही हो । जो आठ प्रातिहार्योसे सहित हैं, जिनके पाँच कल्याणक सिद्ध हुए हैं, चौंतीस अतिशयोंके द्वारा जिनका ऐश्वर्य बढ़ रहा है और जो तीनों लोकोंके स्वामी हैं, ऐसे भगवान् वृषभदेवको देखते ही जिसके हजार नेत्र विकसित हो रहे हैं और मन प्रसन्न हो रहा है ऐसे सौधर्म स्वर्गके इन्द्रने स्थिरचित्त होकर भगवानको स्तुति करना प्रारम्भ की ॥१-८॥ हे प्रभो, यद्यपि मैं बुद्धिकी प्रकर्षतासे रहित हूँ तथापि केवल आपकी भक्तिसे ही प्रेरित होकर परम ज्योतिस्वरूप तथा गुणरूपी रत्नोंकी खानस्वरूप आपकी स्तुति करता हूँ ॥९॥ हे जिनेन्द्र, भक्तिपूर्वक आपको स्तुति करनेवाले पुरुषोंमें उत्तम-उत्तम फलरूपी सम्पदाएँ अपने आप ही प्राप्त होती हैं यही निश्चय कर आपकी स्तुति करता हूँ ॥१०॥ पवित्र गुणोंका निरूपण करना स्तुति है, प्रसन्न बुद्धिवाला भव्य स्तोता अर्थात् स्तुति करनेवाला है, जिनके सब पुरुषार्थ सिद्ध हो चुके हैं ऐसे आप स्तुत्य अर्थात् स्तुतिके विषय हैं, और मोक्षका सुख
१.-संहृतेः ८० । २. निश्चलम् । ३. उद्वमित । ४. दान । ५. राशि। ६. मुनिऋषियत्यनगारा इति चतुर्विधभेदम् । ७. भद्रशालादि । ८-पेतं सिद्ध-ल०, ३० । ९. अतिशयैः । १०. भव्योऽहम् ।