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चतुर्विंशतितमं पर्व
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नास्स्यात्मेत्याहुरेकेऽन्ये सोऽस्त्वनित्य इति स्थिताः । न कर्तव्यपरे केचिद् अमोक्तेति च दुर्दशः ॥ ११२ ॥ अस्यात्मा किं तु मोक्षोऽस्य नास्तीत्येके विमन्वते । मोक्षोऽस्ति तदुपायस्तु नास्तीतीच्छन्ति केचन ११३ ॥ इत्यादि दुर्णयानेतानपास्य सुनयान्वयात् । यथोक्तलक्षणं जीवं स्वमायुष्मन् विनिश्चिनु ॥ ११४ ॥ संसारश्चैव मोक्ष इच 'तस्यावस्थाद्वयं मतम् । संसारश्चतु रङ्गेऽस्मिन् भवावर्ते विवर्तनम् ॥ ११५ ॥ निःशेषकर्म निर्मोक्षो मोक्षोऽनन्तसुखात्मकः । सम्यग् विशेषणज्ञानदृष्टि चारित्रसाधनः ॥ ११६ ॥ आप्तागमपदार्थानां श्रद्धानं परया मुदा । सम्यग्दर्शनमाम्नातं प्रथमं मुक्तिसाधनम् ॥ ११७ ॥ ज्ञानं जीवादिभावानां याथात्म्यस्य प्रकाशकम् । अज्ञानध्वान्तसंतानप्रक्षयानन्तरोद्भवम् ॥ ११८ ॥ माध्यस्थलक्षणं प्राहुश्चारित्रं वितृषो मुनेः । मोक्षकामस्य निर्मुक्तचेलस्याहिंसकस्य तत् ॥ ११९॥ त्रयं समुदितं मुक्तेः साधनं दर्शनादिकम् । नैकाङ्गविकलत्वेऽपि तत्स्वकार्यकृदिष्यते ॥१२०॥ सत्येव दर्शने ज्ञानं चारित्रं च फलप्रदम् । ज्ञानं च दृष्टिसच्चर्यासांनिध्ये मुक्तिकारणम् ॥१२१॥ चारित्रं दर्शनज्ञानविकलं नार्थकृन्मतम् । प्रपातायैव तद्धि स्यादन्धस्येव विवल्गतम् ॥१२२॥
मिथ्यादृष्टि पुरुष उसका स्वरूप अनेक प्रकारसे मानते हैं और परस्परमें विवाद करते हैं ॥ १११ ॥ कितने ही मिथ्यादृष्टि कहते हैं कि आत्मा नामका पदार्थ ही नहीं है, कोई कहते हैं कि वह अनित्य है, कोई कहते हैं कि वह कर्ता नहीं है, कोई कहते हैं कि वह भोक्ता नहीं है, कोई कहते हैं कि आत्मा नामका पदार्थ है तो सही परन्तु उसका मोक्ष नहीं है, और कोई कहते हैं कि मोक्ष भी होता है परन्तु मोक्ष प्राप्तिका कुछ उपाय नहीं है, इसलिए हे आयुष्मन् भरत, ऊपर कहे हुए इन अनेक मिथ्या नयोंको छोड़कर समीचीन नयोंके अनुसार जिसका लक्षण कहा गया है ऐसे जीवतत्वका तू निश्चय कर ।। ११२-११४ ।। उस जीवकी दो अवस्थाएँ मानी गयी हैं एक संसार और दूसरी मोक्ष । नरक, तियंच, मनुष्य और देव इन चार भेदोंसे युक्त संसाररूपी भँवर में परिभ्रमण करना संसार कहलाता है ।। ११५|| और समस्त कर्मोंका बिलकुल ही क्षय हो जाना मोक्ष कहलाता है, वह मोक्ष अनन्तसुख स्वरूप है तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप साधनसे प्राप्त होता है ॥११६|| सच्चे देव, सच्चे शास्त्र और समीचीन पदार्थों का बड़ी प्रसन्नतापूर्वक श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन माना गया है, यह सम्यग्दर्शन प्राप्तिका पहला साधन है ॥११॥ जीव, अजीव आदि पदार्थोंके यथार्थस्वरूपको प्रकाशित करनेवाला तथा अज्ञानरूपी अन्धकारको परम्पराके नष्ट हो जानेके बाद उत्पन्न होनेवाला जो ज्ञान है वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है ।। ११८।। इष्ट-अनिष्ट पदार्थोंमें समताभाव धारण करनेको सम्यक्चारित्र कहते हैं, वह सम्यक्चारित्र यथार्थरूपसे तृष्णारहित, मोक्षकी इच्छा करनेवाले, वस्त्ररहित और हिंसाका सर्वथा त्याग करनेवाले मुनिराजके ही होता है ॥ ११९ ॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर ही मोक्षके कारण कहे गये हैं. यदि इनमें से एक भी अंगकी कमी हुई तो वह अपना कार्य सिद्ध करनेमें समर्थ नहीं हो सकते ||१२|| सम्यग्दर्शनके होते हुए ही ज्ञान और चारित्र फलके देनेवाले होते हैं इसी प्रका सम्यग्दर्शन और सम्यकूचारित्रके रहते हुए ही सम्यग्ज्ञान मोक्षका कारण होता है ।। १२१|| सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानसे रहित चारित्र कुछ भी कार्यकारी नहीं होता किन्तु जिस प्रकार अन्धे पुरुषका दौड़ना उसके पतनका कारण होता है उसी प्रकार सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानसे शून्य पुरुषका चारित्र भी उसके पतन अर्थात् नरकादि गतियों में परिभ्रमणका
१. सुनयानुगमात् । २. जीवस्य । ३. चतुरवयवे । ४. समुदायीकृतम् । ५. दर्शनचारित्रसामीप्ये सति । ६. नरकादिगती पतनायैव । ७. दर्शनविक्रलचारित्रम् । ८. वल्गनमुत्पतनम् ।
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