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चतुर्विशतितम पर्व तस्यमे मार्गणोपाया गत्यादय उदाहृताः । चतुदशगुणस्थानैः सोऽत्र मृग्यः सदादिमिः ॥९॥ गतीन्द्रिये च कायश्च योगवेदकषायकाः । ज्ञानसंबमरग्लेश्या मण्यसम्यक्त्वसम्झिनः ॥१५॥ सममाहारकेण स्युः मार्गणस्थानकानि । सोऽन्वेष्य स्तेषु सत्सल्याच योगैर्विशेषतः ॥९६॥ 'सत्सङ्ख्याक्षेत्रसंस्पर्शकालमावान्तरैरयम् । बहुत्वा सत्वतश्चारमा मृग्यः स्यात् स्मृतिचक्षुषाम् ॥९॥ स्युरिमेऽधिगमोपायो जीवस्याधिगमः पुनः । प्रमाणनयनिक्षेपैः भवसेयो मनीषिभिः ॥१८॥ "तस्यौपशमिको भावः क्षायिको मिश्र एव च । स्वतत्त्वमुदयोस्थश्च पारिणामिक इत्यपि ॥१९॥ निश्चितो यो गुणैरेमिः स जीव इति लक्ष्यताम् । द्वेधा तस्योपयोगः स्याज्ज्ञानदर्शनभेदतः ॥१०॥ ज्ञानमष्टतयं"ज्ञेयं दर्शनं च चतुष्टयम् । साकारं ज्ञानमुदिष्टमनाकारं च दर्शनम् ॥१०॥
भेदग्रहणमाकारः प्रतिकर्मव्यवस्थया । सामान्यमात्रनिर्मासादनाकारं तु दर्शनम् ॥१०॥ दीपकके प्रकाशकी तरह संकोच तथा विस्ताररूप परिणमन करनेवाला है। भावार्थ-नामकर्मके उदयसे उसे जितना छोटा बड़ा शरीर प्राप्त होता है वह उतना ही संकोच विस्ताररूप हो जाता है ॥१३॥ उस जीवका अन्वेषण करनेके लिए गति आदि चौदह मार्गणाओंका निरूपण किया गया है। इसी प्रकार चौदह गुणस्थान और सत्संख्या आदि अनुयोंगोंके द्वारा भी वह जीवतत्त्व अन्वेषण करनेके योग्य है। भावार्थ-मार्गणाओं, गुणस्थानों और सत्संख्या आदि अनुयोगोंके द्वारा जीवका स्वरूप समझा जाता है ॥१४॥ गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व संशित्व और आहारक ये चौदह मार्गणास्थान हैं। इन मार्गणास्थानोंमें सत्संख्या आदि अनुयोगोंके द्वारा विशेषरूपसे जीवका अन्वेषण करना चाहिए-उसका स्वरूप जानना चाहिए ॥९५-९६॥ सिद्धान्तशाखरूपी नेत्रको धारण करनेवाले भव्य जीवोंको सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, भाव, अन्तर, अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोगोंके द्वारा जीवतत्त्वका अन्वेषण करना चाहिए ।।१७। इस प्रकार ये जीवतत्त्वके जाननेके उपाय हैं । इनके सिवाय विद्वानोंको प्रमाण नय और निक्षेपोंके द्वारा भी जीवतत्त्वका निश्चय करना चाहिए-उसका स्वरूप जानकर दृढ़ प्रतीति करना चाहिए Rell
औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक ये पाँच भाव जीवके निजतत्त्व कहलाते हैं, इन गुणोंसे जिसका निश्चय किया जाये उसे जीव जानना चाहिए। उस जीवका उपयोग ज्ञान और दर्शनके भेदसे दो प्रकारका होता है ।।९९-१००। इन दोनों प्रकारके उपयोगों में से ज्ञानोपयोग आठ प्रकारका और दर्शनोपयोग चार प्रकारका जानना चाहिए । जो उपयोग साकार है अर्थात् विकल्पसहित पदार्थको जानता है. उसे ज्ञानोपयोग कहते हैं और जो अनाकार है-विकल्परहित पदार्थको जानता है उसे दर्शनोपयोग कहते हैं ॥१०१॥ घट-पट आदिकी व्यवस्था लिये हुए किसी वस्तु के भेदग्रहण करनेको आकार कहते हैं और सामान्यरूप ग्रहण करनेको अनाकार कहते हैं। ज्ञानोपयोग वस्तुको भेदपूर्वक ग्रहण करता है इसलिए वह साकार-सविकल्पक उपयोग कहलाता है और दर्शनोपयोग
१. विचारोपायाः । २. तत्त्वविचारविषये। ३. विचार्यः। ४. सत्संख्याक्षेत्रादिभिः । ५. जीवः । ६. अन्वेष्टं योग्यः । विचार्य इत्यर्थः। ७. प्रश्नः। विचाररित्यर्थः। ८. सदित्यस्तित्वनिदशः। संख्या भेदगणना। क्षेत्रं वर्तमानकालविषयो निवासः । संस्पर्शः त्रिकालगोचरम् तत्क्षेत्रमेव । काल: वर्तनालक्षणः । भावः औपशामिकादिलक्षणः अन्तर:विरहकालः। ९. अन्योन्यापेक्षया विशेषप्रतिपत्तितः। १०. एतैरयमात्मा मुग्यः विचारणीयः। ११. आगमचक्षुषाम् । १२. विज्ञानोपायाः । १३. निश्चेषः । १४. जीवस्य । १५. स्वस्वभावः । १६. मतिशानादिपञ्चकं कुमतिकुश्रतिविमङ्गाश्चेत्यष्टप्रकारम् । १७.. चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनमिति । १८. प्रतिविषयनियत्या।