________________
५८२
आदिपुराणम् विवक्षा मन्तरेणास्य विविक्कासीत् सरस्वती । महीयसामचिन्त्या हि योगजाः शक्तिसंपदः ॥८॥ आयुष्मन् श्रुणु तत्वार्थान् वक्ष्यमाणाननुक्रमात् । जीवादीन् कालपर्यन्तान् सप्रभेदान् सपर्ययान् ॥४५॥ जीवादीनां पदार्थानां याथात्म्यं तस्वमिष्यते । सम्यग्ज्ञानागमेतद्धि विद्धि 'सिद्ध्यामजिनाम् ॥८६॥ तदेकं तत्वसामान्याज्जीवाजीवाविति द्विधा । विधा मुक्तेतराजीवविभागात्परिकीर्त्यते ॥८७॥ जीवो मुकश्च संसारी संसारमा द्विधा मतः । भन्योऽमग्यश्च साजीवास्ते चतुर्धा निमाविताः॥८॥ मुक्तेतरात्मको जीवो मूर्तामूस्मिकः परः । इति वा तस्य तत्वस्य चातुर्विध्यं विनिश्चितम् ॥८९॥ पञ्चास्तिकायभेदेन तत्तत्वं पञ्चधा स्मृतम् । ते जीवपुद्गलाकाशधर्माधर्माः सपर्ययाः ॥१०॥ त एवं कालसंयुक्ताः षोढा तत्वस्य भेदकाः । इत्यनन्तो मवेदस्य प्रस्तारो विस्तरैषिणाम् ॥९१॥ चेतनालक्षणो जीवः सोऽनादिनिधनस्थितिः । ज्ञाता द्रष्टा च कर्ता च भोक्ता देहप्रमाणकः ॥१२॥ गुणवान् कर्मनिर्मुकावून''ज्यास्वभावकः । परिण"न्तोपसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत् ॥१३॥ भगवान्की वह वाणी बोलनेकी इच्छाके बिना ही प्रकट हो रही थी सो ठीक ही है क्योंकि योगबलसे उत्पन्न हुई महापुरुषोंकी शक्तिरूपी सम्पदाएँ अचिन्तनीय होती हैं-उनके प्रभुत्वका कोई चिन्तवन नहीं कर सकता ॥४॥ भगवान् कहने लगे कि हे आयुष्मन् , जिनका स्वरूप आगे अनुक्रमसे कहा जायेगा, ऐसे भेद-प्रभेदों तथा पर्यायोंसे सहित जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन द्रव्योंको तू सुन ।।८५। जीव आदि पदार्थोंका यथार्थ स्वरूप हो तत्त्व कहलाता है, यह तत्त्व ही सम्यग्ज्ञानका अंग अर्थात् कारण है और यही जीवोंकी - मुक्तिका अंग है ।।८६।। वह तत्त्व सामान्य रीतिसे एक प्रकारका है, जीव और अजीवके भेदसे दो प्रकारका है तथा जीवोंके संसारी और मुक्त इस प्रकार दो भेद करनेसे संसारी जीव, मुक्त जीव और अजीव इस प्रकार तीन भेदवाला भी कहा जाता है ।।८७॥ संसारी जीव दो प्रकारके माने गये हैं-एक भव्य और दूसरा अभव्य, इसलिए मुक्त जीव, भव्य जीव, अभव्य जीव और अजीव इस तरह वह तत्त्व चार प्रकारका भी माना गया है ।।८।। अथवा जीवके दो भेद है एक मुक्त और दूसरा संसारी, इसी प्रकार अजीयके भी दो भेद है एक मूर्तिक और दूसरा अमूर्तिक, दोनोंको मिला देनेसे भी तत्त्वके चार भेद निश्चित किये गये हैं ॥८॥ पाँच अस्तिकायोंके भेदसे वह तत्त्व पाँच प्रकारका भी स्मरण किया है। अपनीअपनी पर्यायोसहित जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ये पाँच अस्तिकाय कहे जाते हैं ।।१०।। उन्हीं पाँच अस्तिकायोंमें कालके मिला देनेसे तत्त्वके छह भेद भी हो जाते हैं, इस प्रकार विस्तारपूर्वक जाननेकी इच्छा करनेवालोंके लिए तत्वोंका विस्तार अनन्त भेदवाला हो सकता है ।।९।। जिसमें चेतना अर्थात जाननेदेखनेकी शक्ति पायी जाये उसे जीव कहते हैं, वह अनादि निधन है अर्थात् द्रव्य-दृष्टिकी अपेक्षा न तो वह कभी उत्पन्न हुआ है और न कभी नष्ट ही होगा। इसके सिवाय वह ज्ञाता है-ज्ञानोपयोगसे सहित है, द्रष्टा है-दर्शनोपयोगसे युक्त है, कर्ता है-द्रव्यकर्म और कर्मोको करनेवाला है, भोक्ता है-ज्ञानादि गुणं तथा शुभ-अशुभ कर्मोके फलको भोगनेवाला है और शरीरके प्रमाणके बराबर है-सर्वव्यापक और अणुरूप नहीं है ।।१२।। वह अनेक गुणोंसे युक्त है, काँका सर्वथा नाश हो जानेपर ऊर्ध्वगमन करना उसका स्वभाव है और वह
१. ववतुमिच्छया विना। २. निश्चिता। ३. अतिशयेन महताम् । ४. ध्यानजाताः । ५. निश्चयस्वरूपम् । ६.मोक्षकारणम् । ७. भव्यसंसारी, अभव्यसंसारी, मुक्तः, अजीवश्चेति । ८. अजीवः । ९. ते पञ्वास्तिकाया एव । १०. विस्तरमिच्छताम् । ११. ऊर्ध्वगमन । १२. परिणमनशीलः ।