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चतुर्विशतितमं पर्व त्वयोपदर्शितं मार्गमुपास्य शिवीप्सितः । स्वां देवमित्युपासीनान् प्रसीदानुगृहाण नः ॥७॥ मवन्तमित्य मिष्टुत्य विष्टपातिगबैभवम् । स्वय्येव भक्तिमकृशां प्रार्थये नान्यदर्थये ॥७॥ स्तुत्यन्त सुरसधातरीक्षितो विस्मितेक्षणैः । श्रीमण्डपं प्रविश्यास्मिन्नध्युवासोचिरा सदः ॥७॥ ततो निभृतमासीने प्रबुद्धकरकुडमले । सदापनाकरे मतुः प्रबोधममिलापुके ॥७७॥ प्रीस्या भरतराजेन विनयानतमौलिना । विज्ञापनमकारोस्थं तत्वजिज्ञासुना गुरोः ॥८॥ भगवन् बोमिच्छामि कीदृशस्तत्त्वविस्तरः । मागों मार्गफलं चापि कोरक तत्वविदां वर ॥७९॥ तत्प्रश्ना वसिताविस्थं मगवानादितीर्थकृत् । तस्वं प्रपञ्चयामास गम्भीरतरया गिरा ॥४०॥. प्रवक्तुरस्य वक्त्राब्जे विकृति व काप्यभूत् । दर्पणे किमु भावानां विक्रियास्ति प्रकाशने ॥८॥ ताल्वोष्ठमपरिस्पन्दि नच्छायान्तरमानने । अस्पृष्ट करणा वर्णा मुखादस्य विनिर्ययुः ॥४२॥ स्फुरगिरिगुहोद्भूतप्रतिश्रुद्वनिसन्निभः । प्रस्पष्टवणे निरगाद् ध्वनिः स्वायम्भुवान्मुखात् ॥८३॥
हे प्रभो, आपके द्वारा दिखलाये हुए मार्गकी उपासना कर मोक्ष प्राप्त करनेकी इच्छा करनेवाले
और देव मानकर आपकी ही उपासना करनेवाले हम लोगोंपर प्रसन्न होइए और अनुग्रह कीजिए ||७४॥ हे भगवन् , इस प्रकार लोकोत्तर वैभवको धारण करनेवाले आपकी स्तुति कर हम लोग यही चाहते हैं कि हम लोगोंको बड़ी भारी भक्ति आपमें ही रहे, इसके सिवाय हम और कुछ नहीं चाहते ॥७॥ __इस प्रकार स्तुति कर चुकनेपर जिसे देवोंके समूह आश्चर्यसहित नेत्रोंसे देख रहे थे ऐसे महाराज भरत श्रीमण्डपमें प्रवेश कर वहाँ अपनी योग्य सभामें जा बैठे ॥७६।। तदनन्तर भगवानसे प्रबोध प्राप्त करनेकी इच्छा करनेवाला वह सभारूपी सरोवर जब हाथरूपी कुड्मल जोड़कर शान्त हो गया-जब सब लोग तत्त्वोंका स्वरूप जाननेकी इच्छासे हाथ जोड़कर चुपचाप बैठ गये तब भगवान् वृषभदेवसे तत्वोंका स्वरूप जाननेकी इच्छा करनेवाले महाराज भरतने विनयसे मस्तक झुकाकर प्रीतिपूर्वक ऐसी प्रार्थना की ।।७७-७८॥ हे भगवन् , तत्त्वोंका विस्तार कैसा है ? मार्ग कैसा है ? और उसका फल भी कैसा है ? हे तत्त्वोंके जाननेवालोंमें श्रेष्ठ, मैं आपसे यह सब सुनना चाहता हूँ॥७९॥ इस प्रकार भरतका प्रश्न समाप्त होनेपर प्रथम तीर्थकर भगवान् वृषभदेवने अतिशय गम्भीर वाणीके द्वारा तत्त्वोंका विस्तारके साथ विवेचन किया ।।८०॥ कहते समय भगवान के मुखकमलपर कुछ भी विकार उत्पन्न नहीं हुआ था सो ठीक है, क्योंकि पदार्थोंको प्रकाशित करते समय क्या दर्पणमें कुछ विकार उत्पन्न होता है ? अर्थात् नहीं होता ।।८।। उस समय भगवान्के न तो तालु, ओठ आदि स्थान ही हिलते थे और न उनके मुखको कान्ति ही-बदलती थी। तथा जो अक्षर उनके मुखसे निकल रहे थे उन्होंने प्रयत्नको छुआ भी नहीं था-इन्द्रियोंपर आघात किये बिना ही निकल रहे थे ।।८।। जिसमें सब अक्षर स्पष्ट हैं ऐसी वह दिव्यध्वनि भगवान् के मुखसे इस प्रकार निकल रही थी जिस प्रकार कि किसी पर्वतकी गुफाके अग्रभागसे प्रतिध्वनि निकलती है ॥८॥
१. सेवमानान् । २. प्रार्थयेऽहम् । ३. स्तुत्यवसाने । ४. भर्तुःसकाशात् । ५. तत्त्वं ज्ञातुमिच्छना। तत्त्वं जिज्ञासुना- ल०, द०, इ। ६. श्रोतु-३०, ल०। ७. प्रश्नावसाने । ८. विस्तारयामास । ९. इन्द्रियप्रयत्नरहिता इत्यर्थः । १०. प्रतिध्वानरवः ।