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चतुर्विशक्तिमं पर्व
५७९ शानमप्रतिघं विश्वं पर्यत्सीत्तवाक्रमात् । त्रयं सावरणावेतद्वथैवधिः करणं क्रमः ५७॥ चित्रं जगदिदं चित्रं त्वयाबोधि यदक्रमात् । आक्रमोऽपि क्वचिच्छलाभ्यः प्रभुमाश्रित्य लक्ष्यते ॥५॥ इन्द्रियेषु समप्रेषु तव सत्स्वप्यतीन्द्रियम् । ज्ञानमासीदचिन्त्या हि योगिनां प्रभुशक्तयः ॥५९॥ यथा ज्ञानं तवैवाभूत् क्षायिकं तव दर्शनम् । ताभ्यां युगपदेवासीदुपयोग स्तवाद्भुतम् ॥३०॥ तेन त्वं विश्वविज्ञेय व्यापिज्ञानगुणा गुतः । सर्वज्ञः सर्वदर्शी च योगिमिः परिगीयसे ॥६१॥ विश्वं विजानतोऽपीश' यतेनास्ता अमक्लमौ । अनन्तवीर्यताशक्तस्तम्माहात्म्य परिस्फुटम् ॥६२॥ रागादिचित्तकालुष्यज्यपायादुदिता तव । "विरतिः सुखमात्मोत्थं व्यनस्यान्तन्तिकं विमो ॥१३॥ विरतिः"सुखमिष्टं चेत् सुखं त्वय्येव केवलम् । नो चेन्नैवासुखं नाम किंचिदत्र जगस्त्रये ॥६॥
जाती हैं ॥५६॥ हे भगवन् , आपका बाधारहित ज्ञान समस्त संसारको एक साथ जानता है सो ठीक ही है क्योंकि व्यवधान होना, इन्द्रियोंकी आवश्यकता होना और क्रमसे जानना ये तीनों ही ज्ञानावरण कर्मसे होते हैं परन्तु आपका ज्ञानावरण कर्म बिलकुल ही नष्ट हो गया है इसलिए निर्वाधरूपसे समस्त संसारको एक साथ जानते हैं ॥५७॥ हे प्रभो, यह एक बड़े आश्चर्यकी बात है कि आपने इस अनेक प्रकारके जगत्को एक साथ जान लिया अथवा कही. कहीं बड़े पुरुषोंका आश्रय पाकर क्रमका. छूट जाना भी प्रशंसनीय समझा जाता है ॥५८॥ हे विभो, समस्त इन्द्रियोंके विद्यमान रहते हुए भी भापका ज्ञान अतीन्द्रिय ही होता है सो ठीक ही है क्योंकि आपकी शक्तियोंका योगी लोग भी चिन्तवन नहीं कर सकते हैं ॥५५॥ हे भगवन, जिस प्रकार आपका ज्ञान क्षायिक है उसी प्रकार आपका दर्शन भी क्षायिक है और उन: दोनोंसे एक साथ ही आपके उपयोग रहता है यह एक आश्चर्यको बात है। भावार्थ-संसारके अन्य जीवोंके पहले दर्शनोपयोग होता है बादमें शानोपयोग होता है परन्तु आपके दोनों उपयोग एक साथ ही होते हैं ।।६०॥ हे देव, आपका ज्ञानगुण संसारके समस्त पदार्थोंमें व्याप्त हो रहा है, आप आश्चर्य उत्पन्न करनेवाले हैं और योगी लोग आपको सर्वज्ञ तथा सर्वदर्शी कहते हैं ॥६१॥ हे ईश, आप संसारके समस्त पदार्थोंको जानते हैं फिर भी आपको कुछ भी परिश्रम और खेद नहीं होता है । यह आपके अनन्त बलकी शक्तिका प्रकट दिखाई देनेवाला माहात्म्य है ॥२॥हे विमो, चित्तको कलुषित करनेवाले राग आदि विभाव भावोंके नष्ट हो जानेसे जो आपके सम्बन्चारित्र प्रकट हुआ है वह आपके विनाशरहित और केवल आत्मासे उत्पन्न होनेवाले सुखको प्रकट परताशा यदि विषय और बायसे विरक्त होना ही सुख माना जाये तो वह सुख केवड बाप हो माना जावेगा और यदि विषय कषायसे विरक्त न होनेको सुख माना जाये तो फिर यही मानना पड़ेगा कि तीनों लोकोंमें दुःख है ही नहीं। भावार्थ-निवृति अर्थात् आकुलताके अभाषको सुख कहते हैं, विषयकषायोंमें प्रवृत्ति करते हुए आकुलताका अभाव नहीं होता इसलिए उनमें वास्तविक सुख नहीं
१. विघ्नरहितः । 'प्रतिषः प्रतिपाते प रोषे च प्रतिषो मतः ।' २. परिच्छिनत्ति स्म, निश्चयमकरोदित्यर्थः । ३. युगपदेव । क्रमकरणम्यवधानमन्तरेणेत्यर्थः । ४. व्यवधानम् । ५. इन्द्रियम् । ६. परिपाटी। ७. नानाप्रकारम् । ८. तदाश्चर्यम् । ९. ज्ञानदर्शनाभ्याम् । १०. परिग्छित्तिः (सकलपदार्थपरिज्ञानम)। ११. विश्वव्यापी विज्ञेयव्यापी। १२. सकलपदार्थव्यापिज्ञानगुणेनात्मज्ञानान्तमाश्चर्यवानित्यर्थः । १३. यस्मात् कारणात् । यत्ते न स्तः-६०, ल०, म०, अ०, ७ । १४. अभवताम् । १५. विरतिः निस्पृहता । विरतिः निवृत्तिः । १६. विरतिः सुखमितीष्टं चेत्तहि केवलं सुखं त्वम्येवास्ति, नान्यस्मिन्, नो चेत् विरतिः सुखमिति नेष्टम् अनिवृत्तिरेव सुखमिति चेत्तहि किंचिदसुखं नास्त्येव ।