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आदिपुराणम् तवामी चामरबाता यक्षिप्य वीजिताः । निथुनन्तीव निर्व्याजमागोगोमक्षिका नृणाम् ॥४८॥ स्वामापतन्ति परितः सुमनोऽम्जलयो दिवः । तुष्टया स्वर्गलक्ष्म्येव मुक्ता हर्षाश्रुबिन्दवः ॥४९॥ छत्रत्रितयमामाति सूच्छ्रितं जिन तावकम् । मुकासम्बनविभाजि लक्ष्याः क्रीडास्थलायितम् ॥५०॥ तव हर्यासनं भाति विश्वमतुर्मवरम् । कृतयत्नैरिबोहोडं न्यग्भूयोढं मृगाधिपः ॥५१॥ तव देहप्रभोत्सपैरिदमागम्यते सदः । पुण्याभिषेकसम्मार लम्मयनिरिवामितः ॥५२॥ तव वाकप्रसरो दिन्यः पुनाति जगतां मनः । मोहान्धतमसं धुन्वन् "स्वज्ञानाांशुकोपमः ॥५३॥ प्रातिहाण्यहार्याणि तवामूनि वकासति । लक्ष्मी हंस्याः समाक्रोडपुलिमानि शुचीनि वा ॥५४॥ नमो विश्वात्मने तुभ्यं तुभ्यं विश्वसृजे नमः । स्वयंभुवे नमस्तुभ्यं क्षायिकैलंब्धिपर्ययैः ।।५५।। शानदर्शनवीर्याणि विरति: शुखदर्शनम् । दानादिलब्धयश्चेति क्षायिक्यस्तव शुद्धयः ॥५६॥
छायामें आये हुए जीवोंकी इस प्रकार रक्षा करता है मानो इसने आपसे ही शिक्षा पायो हो ॥४७॥ यक्षोंके द्वारा ऊपर उठाकर ढोले गये ये आपके चमरोंके समूह ऐसे जान पड़ते हैं मानो बिना किसी छलके मनुष्यों के पापरूपी मक्खियोंको. ही उड़ा रहे हों ॥४८॥ हे नाथ, आपके चारों ओर स्वर्गसे जो पुष्पाञ्जलियोंकी वर्षा हो रही है वह ऐसी जान पड़ती है मानो सन्तुष्ट हुई स्वर्ग-लक्ष्मीके द्वारा छोड़ी हुई हर्षजनित आँसुओंकी बूंदें ही हों ॥४९॥ हे जिनेन्द्र, मोतियोंके जालसे सुशोभित और अतिशय ऊँचा आपका यह छत्रत्रितय ऐसा जान पड़ता है मानो लक्ष्मीका क्रीड़ास्थल ही हो ॥५०॥ हे भगवन् , सिंहोंके द्वारा धारण किया हुआ यह आपका सिंहासन ऐसा सुशोभित हो रहा है मानों आप-समस्त लोकका भार धारण करनेवाले हैं-तीनों लोकोंके स्वामी हैं इसलिए आपका बोझ उठानेके लिए सिंहोंने प्रयत्न किया हो, परन्तु भारकी अधिकतासे कुछ झुककर ही उसे धारण कर सके हों ॥५१॥ हे भगवन , आपके शरीरकी प्रभाका विस्तार इस समस्त सभाको व्याप्त कर रहा है और उससे ऐसा जान पड़ता है मानो वह समस्त जीवोंको चारों ओरसे पुण्यरूप जलके अभिषेकको ही प्राप्त करा रहा हो ॥५२॥ हे प्रभो, आपके दिव्य वचनोंका प्रसार (दिव्यध्वनिका विस्तार) मोहरूपी गाद अन्धकारको नष्ट करता हुआ जगत्के जीवोंका मन पवित्र कर रहा है इसलिए आप सम्यगज्ञानरूपी किरणोंको फैलानेवाले सूर्यके समान हैं ।।१३॥ हे भगवन् , इस प्रकार पवित्र और किसीके द्वारा हरण नहीं किये जा सकने योग्य आपके ये आठ प्रातिहार्य ऐसे देदीप्यमान हो रहे हैं मानो लक्ष्मीरूपी हंसीके क्रीड़ा करने योग्य पवित्र पुलिन (नदीतट) ही हों ॥१४॥ हे प्रभो, ज्ञानकी अपेक्षा आप समस्त संसारमें व्याप्त हैं अथवा आपकी आत्मामें संसारके समस्त पदार्थ प्रतिबिम्बित हैं इसलिए आपको नमस्कार हो, आप जगत्की सृष्टि करनेवाले हैं इसलिए आपको नमस्कार हो, कर्मोके झयसे प्रकट होनेवाली नौ लब्धियोंसे आप स्वयंभू हैं इसलिए आपको नमस्कार हो ॥५५॥ हे नाथ, क्षायिकज्ञान, क्षायिकदर्शन, क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायिकचारित्र और क्षायिकदान, लाभ, भोग, उपभोग तथा वीर्य ये आपकी नौ क्षायिकशुद्धियाँ कही
१. उद्धृत्य । २. भवतो भरम् । ३. अधोभूत्वा। ४. समूहम् । ५. प्रापयद्भिः । ६. त्वं ज्ञाना-ल., द०, इ०, अ०, १०, स०, म० । ७. सहजानीत्यर्थः । ८. चारित्रम् । ९. क्षये भवाः।