Book Title: Adi Puran Part 1
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 677
________________ ५०७ चतुर्विशतितमं पर्व इति जीवपदार्थस्ते संक्षेपेण निरूपितः । भजीवतत्वमप्येवमवधारय धीधन ॥५॥ अजीवलक्षणं तत्वं पम्चधैव प्रपम्यते । धर्माधर्मावथाकाशं कालः पुद्गल इत्यपि ॥१२॥ जीवपुद्गलयोर्यरस्याद् गत्युपग्रहका रणम् । धर्मद्रयं तदुदिष्टमधर्मः स्थित्युपग्रहः ॥१३॥ गतिस्थि तिमतामेतौ गतिस्थित्योपग्रहे । धर्माधमौं प्रवतेते नं स्वयं प्रेरको मतौ ॥१३॥ यथा मत्स्यस्य गमनं विना नैवाम्मसा भवेत् । न चाम्मः प्रेरयत्येनं तथा धर्मास्स्यनुग्रहः ॥१३५॥ तरुच्छाया यथा मयं स्थापयस्यर्थिनं स्वतः । न स्वेषा प्रेरयस्येनमय च स्थितिकारणम् ॥१३॥ तथैवाधर्मकायोऽपि जीवपुद्गलयोः स्थितिम् । निवर्तयत्युदासीनो न स्वयं प्रेरकः स्थितेः ॥१३७॥ जीवादीनां पदार्थानामवगाहनलक्षणम् । यत्तदाकाशमस्पर्शममूर्त व्यापि निष्क्रियम् ॥ १३८॥ वर्तनालक्षणः कालो वर्तना स्वपराश्रया । यथास्वं गुणपर्यायैः परिणन्तृत्वयोजना ॥१९॥ यथा कुलालचक्रस्य भ्रमणेऽभःशिला स्वयम् । धत्ते निमित्ततामेवं कालोऽपि कलितो बुधैः ॥१४॥ शिखर ही जिनका स्थान है, जो कर्म कालिमासे रहित है और जिन्हें अनन्तसुखका अभ्युदय प्राप्त हुआ है ऐसे सिद्ध परमेष्ठी मुक्त जीव कहलाते हैं ॥१३०।। इस प्रकार हे बुद्धिरूपी धनको धारण करनेवाले भरत, मैंने तेरे लिए संक्षेपसे जीवतत्त्वका निरूपण किया है अब इसी तरह अजीवतत्त्वका भी निश्चय कर ॥१३१॥ धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल इस प्रकार अजीवतत्त्वका पाँच भेदों-द्वारा विस्तार निरूपण किया जाता है ॥१३२॥ जो जीव और पुद्गलोंके गमनमें सहायक कारण हो उसे धर्म कहते हैं और जो उन्हींके स्थित होने में सहकारी कारण हो उसे अधर्म कहते हैं ॥१३॥ धर्म और अधर्म ये दोनों ही पदार्थ अपनी इच्छासे गमन करते और ठहरते हुए जीव तथा पुद्गलोंके गमन करने और ठहरने में सहायक होकर प्रवृत्त होते हैं स्वयं किसीको प्रेरित नहीं करते हैं ॥१३४॥ जिस प्रकार जलके बिना मछलीका गमन नहीं हो सकता फिर भी जल मछलीको प्रेरित नहीं करता उसी प्रकार जीव और पुद्गल धर्मके बिना नहीं चल सकते फिर भी धर्म उन्हें चलनेके लिए प्रेरित नहीं करता किन्तु जिस प्रकार जल चलते समय मछलीको सहारा दिया करता है उसी प्रकार धर्मपदार्थ भी जीव और पुद्गलोंको चलते समय सहारा दिया करता है ॥१३५।। जिस प्रकार वृक्षकी छाया नेकी इच्छा करनेवाले पुरुषको ठहरा देती है-उसके ठहरने में सहायता करती है परन्तु वह स्वयं उस पुरुषको प्रेरित नहीं करती तथा इतना होनेपर भी वह उस पुरुषके ठहरनेको कारण कहलाती है उसी प्रकार अधर्मास्तिकाय भी उदासीन होकर जीव और पुद्गलोंको स्थित करा देता है-उन्हें ठहरने में सहायता पहुँचाता है परन्तु स्वयं ठहरनेकी प्रेरणा नहीं करता ॥१३६-१३७। जोजीव आदि पदायोंको ठहरनेके लिए स्थान दे उसे आकाश कहते हैं। वह आकाश स्पर्शरहित है, अमूर्तिक है, सब जगह व्याप्त है और क्रियारहित है ॥१३८।। जिसका वर्तना लक्षण है उसे काल कहते हैं, वह वर्तना काल तथा कालसे भिन्न जीव आदि पदार्थोके आश्रय रहती है और सब पदार्थोंका जो अपने-अपने गुण तथा पर्यायरूप परिणमन होता है उसमें सहकारी कारण होती है ॥१३९॥ जिस प्रकार कुम्हारके चक्रके फिरनेमें उसके नीचे लगी हुई शिला कारण होती है उसी प्रकार कालद्रव्य भी सब पदार्थोके परिवर्तनमें कारण होता है ऐसा विद्वान् लोगोंने निरूपण किया है। भावार्थ-कुम्हारका चक्र १.गमनस्योपकारे कारणम् । २. स्थितेरुपकारः । ३. जीवपुदगलानाम् । ४. धर्मास्तिकायस्योपकारः। धर्मेऽस्त्यनुग्रहः ल० । ५. -मपि च । ६. स्वस्यकालस्य परस्य वस्तुन आश्रयो यस्याः सा । ७. परिणमनत्वस्य योजनं यस्याः सा । परिणेतृत्व-ल.।

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