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चतुर्विंशतितमं पर्व
स जीयाद् वृषभो मोहविषसुत े मिदं जगत् । पटविद्येव यद्विथा सद्यः समुदतिष्ठिपत् ॥१॥ श्रीमान् भरतराजर्षिर्बुबुधे युगपत्त्रयम् । गुरोः कैवक्ष्यसंभूर्ति सूर्ति च सुतचक्रयोः ॥२॥ धर्मस्थाद् गुरुकैवल्यं चक्रमायुधपाळतः । काञ्चुकीयात् सुतोत्पतिं विदामास तदा विभुः ॥३॥ पर्याकुल इवासीच्च क्षणं तद्योग पथतः । किमत्र प्रागनुष्ठेयं संविधानमिति प्रभुः ॥४॥ त्रिवर्गफकसंभूतिरक्रमोपनता' मम । पुण्यतीर्थ सुतोत्पतिश्चक्ररत्नमिति श्रयी ॥५॥ तत्र धर्मफलं तीर्थं पुत्रः स्यात् कामजं फलम् | अर्थानुबन्धिनोऽर्थस्य फलं चक्रं प्रभास्वरम् ॥६॥ अथवा सर्वमप्येतत्फलं धर्मस्य पुष्कलम्। यतो धर्मतरोरर्थः फलं कामस्तु तद्वसः ॥७॥ कार्येषु प्राविधेयं तद्धम्यं श्रेयोऽनुबन्धि यत् । महाफलं च तद्देवसेवा प्राथमकल्पिकी' ' ॥८॥ निश्चिचायेति राजेन्द्रो गुरुपूजनमादितः । अहो धर्मात्मनां चेष्टा प्रायः श्रेयोऽनुबन्धिनी ॥९॥ सानुजन्मा समेतोऽन्तःपुरपौरपुरोगमैः । प्राज्यामिज्यां पुरोधाय " सज्जोऽभूद् गमनं प्रति ॥१०॥
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जिनके ज्ञानने पटविद्या अर्थात् विष दूर करनेवाली विद्याके समान मोहरूपी विषसे सोते हुए इस समस्त जगत्को शीघ्र ही उठा दिया था - जगा दिया था वे श्रीवृषभदेव भगवान् सदा जयवन्त रहें ॥१॥ अथानन्तर राज्यलक्ष्मीसे युक्त राजर्षि भरतको एक ही साथ नीचे लिखे हुए तीन समाचार मालूम हुए कि पूज्य पिताको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है, अन्तःपुरमें पुत्रका जन्म हुआ है और आयुधशालामें चक्ररत्न प्रकट हुआ है ॥२॥ उस समय भरत महाराजने धर्माधिकारी पुरुषसे पिताके केवलज्ञान होनेका समाचार, आयुधशालाकी रक्षा करनेवाले पुरुषसे चक्ररत्न प्रकट होनेका वृत्तान्त, और कंचुकीसे पुत्र उत्पन्न होनेका समाचार मालूम किया था ||३|| ये तीनों ही कार्य एक साथ हुए हैं। इनमें से पहले किसका उत्सव करना चाहिए यह सोचते हुए राजा भरत क्षण-भर के लिए व्याकुल-से हो गये ||४|| पुण्यतीर्थ अर्थात् भगवान्को केवलज्ञान उत्पन्न होना, पुत्रकी उत्पत्ति होना और चक्ररत्नका प्रकट होना ये धर्म, अर्थ, काम तीन वर्गके फल मुझे एक साथ प्राप्त हुए हैं ||५|| इनमें से भगवान्के केवलज्ञान उत्पन्न होना धर्मका फल है, पुत्रका होना कामका फल है और देदीप्यमान चक्रका प्रकट होना अर्थ प्राप्त करानेवाले अर्थ पुरुषार्थका फल है ||६|| अथवा यह सभी धर्मपुरुषार्थका पूर्ण फल है क्योंकि अर्थ धर्मरूपी वृक्षका फल है और काम उसका रस है ||७|| सब कार्यों में सबसे पहले धर्मकार्य हो करना चाहिए क्योंकि वह कल्याणोंको प्राप्त करानेवाला है और बड़े-बड़े- फल देनेवाला है इसलिए सर्वप्रथम जिनेन्द्र भगवान् की पूजा ही करनी चाहिए ||८|| इस प्रकार राजाओंके इन्द्र भरत महाराजने सबसे पहले भगवान्की पूजा करनेका निश्चय किया सो ठीक ही है क्योंकि धर्मात्मा पुरुषोंकी चेष्टाएँ प्रायः पुण्य उत्पन्न - करनेवाली ही होती हैं ||९|| तदनन्तर महाराज भरत अपने छोटे भाई, अन्तःपुरकी स्त्रियाँ
१. अनिश्चयज्ञानमुपेतम् । २. विषापहरणविद्या । ३ उत्थापयति स्म । ४. उत्पत्तिम् । ५. धर्माधिकारिणः । ६. बुबुधे । ७ तेषामेककालीनत्वतः । ८. सामग्रीम् । ९. युगपदागता । १०. सम्पूर्णम् । ११. प्रथमं कर्तव्या । १२. धर्मबुद्धिमताम् । १३. पुण्यानुबन्धिनी ल० । १४. महत्तरैः । १५. अग्रे कृत्वा ।