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भादिपुराणम् इत्युच्चैः संगृहीतां समवसतिमही धर्मचकादिमतु।
भग्यास्मा संस्मरेयः स्तुतिमुखरमुखो भक्तिननेण मूर्ना । जैनी लक्ष्मीमचिन्स्यां सकलगुणमयीं प्राश्नुतेऽसौ महर्षि
चूडामि कभाजां मणिमुकुटनुषामचिंता नग्धराभिः ॥१९॥
इत्याचे भगवजिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे
भगवत्समवसृतिविभूतिवर्णनं नाम त्रयोविंश पर्व ॥२३॥
सवार हैं और जो भव्य जीवोंके बन्धु हैं ऐसे श्री जिनेन्द्रदेवरूपी सूर्य अतिशय देदीप्यमान हो रहे थे ॥१९५।। इस प्रकार ऊपर जिसका संग्रह किया गया है ऐसी, धर्मचक्र के अधिपति जिनेन्द्र भगवानकी इस समवसरणभूमिका जो भव्य जीव भक्तिसे मस्तक झुकाकर स्तुतिसे मुखको शब्दायमान करता हुआ स्मरण करता है वह अवश्य ही मणिमय मुकुटोंसे सहित देवोंके मालाओंको धारण करनेवाले मस्तकोंके द्वारा पूज्य, समस्त गुणोंसे भरपूर और बड़ीबड़ी ऋद्धियोंसे युक्त जिनेन्द्र भगवान्की लक्ष्मी अर्थात् अर्हन्त अवस्थाकी विभूतिको प्राप्त करता है ॥१९॥
इस प्रकार आर्षनामसे प्रसिद्ध भगवजिनसेनाचार्य प्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणके संग्रहमें
समवसरणविभूतिका वर्णन करनेवाला तेईसवाँ पर्व समाप्त हुभा ॥२३॥
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१. मालधारिणीभिः।