Book Title: Adi Puran Part 1
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 660
________________ ५७० आदिपुराणम् सुवदनावृत्तम् यद्राव्योममार्ग कलुषयति दिशा प्रान्तं स्थगयति प्रोत्सर्पड पधूमैः सुरमयति जगद्विश्वं द्रुततरम् । तनः सद्धपकुम्भयमुरुमनसः प्रीतिं घटयतु श्रीमत्तबाव्यशालाद्वयमपि रुचिरं सालत्रयगतम् ॥१८९॥ छन्दः (१) पुष्पपल्लवोज्ज्वलेषु कल्पपादपोलकाननेषु हारिषुश्रीमदिन्द्रवन्दिताः स्वबुध्नसुस्थितेदसिद्धबिम्बका द्रुमाः। सन्ति तानपि प्रणौम्यमूं नमामि च स्मरामि च प्रसनधीः स्तूपपंक्किमप्यमूंसमग्ररत्नविग्रहां जिनेन्द्रबिम्बिनीम् स्रग्धरा ......... -- - --- वीथीं कल्पगुमाणां सवनपरिवृति तामतीत्य स्थिता या शुभ्रा प्रासादपक्तिः स्फटिकमणिमयः सालवर्यस्तृतीयः । भर्तुः श्रीमण्डपश्च त्रिभुवनजनतासंश्रयात्तप्रमाव: पीठं चोथस्त्रिभूमं' श्रियमनु तनुताद् गन्धकुटयाश्रितं नः ॥१९॥ मानस्तम्माः सरांसि प्रविमलजलसत्खातिका पुष्पवाटी प्राकारो नाव्यशाला द्वितयमुपवर्न वेदिकान्तर्ध्वजाध्वा । सालः कल्पद्माणां सपरिवृतवनं स्तूपहावलीच 'प्राकारः स्फाटिकोन्तनूसुरमुनिसमा पीठिकाने स्वयंभूः ॥१९२॥ होती हैं उन्हें भी मैं नमस्कार करता हूँ ॥१८८॥ जो फैलते हुए धूपके धुएँ से आकाशमार्गको मलिन कर रहे हैं जो दिशाओंके समीप भागको आच्छादित कर रहे हैं और जो समस्त जगत्को बहुत शीघ्र ही सुगन्धित कर रहे हैं ऐसे प्रत्येक दिशाके दो-दो विशाल तथा उत्तम धूप-घट हमारे मनमें प्रीति उत्पन्न करें, इसी प्रकार तीनों कोटोंसम्बन्धी, शोभा सम्पन्न दो-दो मनोहर नाट्यशालाएँ भी हमारे मनमें प्रीति उत्पन्न करें ॥१८९॥ फूल और पल्लवोंसे देदीप्यमान और अतिशय मनोहर कल्पवृक्षोंके बड़े-बड़े वनोंमें लक्ष्मीधारी इन्द्रोंके द्वारा वन्दनीय तथा जिनके मूलभागमें सिद्ध भगवान्की देदीप्यमान प्रतिमाएँ विराजमान हैं ऐसे जो सिद्धार्थ वृक्ष हैं मैं प्रसन्नचित्त होकर उन सभीकी स्तुति करता हूँ, उन सभीको नमस्कार करता हूँ और उन सभीका स्मरण करता हूँ, इसके सिवाय जिनका समस्त शरीर रत्नोंका बना हुआ है और जो जिनेन्द्र भगवान्की प्रतिमाओंसे सहित हैं ऐसे स्तूपोंकी पंक्तिका भी मैं प्रसन्नचित्त होकर स्तवन, नमन तथा स्मरण करता हूँ ॥१९०।। वनकी वेदीसे घिरी हुई कल्पवृक्षोंके वनोंको पंक्तिके आगे जो सफेद मकानोंकी पंक्ति है उसके आगे स्फटिकमणिका बना हुआ जो तीसरा उत्तम कोट है,। उसके आगे तीनों लोकोंके समस्त जीवोंको आश्रय देनेका प्रभाव रखनेवाला जो भगवान्का श्रीमण्डप है और उसके आगे जो गन्धकुटीसे आश्रित तीन कटनीदार ऊँचा पीठ है वह सब हम लोगोंकी लक्ष्मीको विस्तृत करे ।।१९।। संक्षेपमें समवसरणकी रचना इस प्रकार हैसबसे पहले (धूलीसालके बाद) चारों दिशाओं में चार मानस्तम्भ हैं, मानस्तम्भोंके चारों ओर सरोवर हैं, फिर निर्मल जलसे भरी हुई परिखा है, फिर पुष्पवाटिका (लतावन) है, उसके आगे पहला कोट है, उसके आगे दोनों ओर दो-दो नाट्यशालाएँ हैं, उसके आगे १. विभूमिकम् । त्रिमेखलमित्यर्थः । २. करोतु ।

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