________________
आदिपुराणम्
मन्दाक्रान्तावृत्तम्
यस्याशोकश्चककिसलयश्चित्रपत्र प्रसूनो भाति श्रीमान् मरकतमयस्कन्धवन्धोज्ज्वलाङ्गः । सान्द्रच्छायः सकलजनताशोकविच्छेदनेच्छः सोऽयं श्रीशां जयति वृषभो मध्यपद्माकरार्कः ॥ १८१ ॥ कुसुमितलतावेल्लित । वृत्तम्
जयाज्जैनेन्द्रः सुरुचिरतनुः श्रीरशोकाङ्घ्रिपो यो वातोद्भूतैः स्वैः प्रचलविट' पैर्नित्यपुष्पोपहारम् ।तन्वन्व्याप्ताशः परभृतरुतातोद्य संगीतहृयो नृत्यच्छाखामैर्जिन मिव भजन्माति भक्त्येव मध्यः ॥ १८२॥
५६८
मन्दाक्रान्तावृत्तम्
यस्यां पुष्पप्रततिममराः पातयन्ति घुमूर्ध्नः प्रीता नेत्रप्रततिमिव तां लोकमप्तालिजुष्टाम् । वातोद्धतैर्ध्वज विततिमिष्यमसम्मार्जती वा माति श्रेयः समवसृतिभूः साचिरं नस्तनोतु ॥१८३॥
शार्दूलविक्रीडितम्
यस्मिन्नग्नरुचिर्विभाति नितरां रत्नप्रमाभास्वरे
भास्वान्सालवरो जयव्यमलिनो धूलीमयोऽसौ विभोः । स्तम्भाः कल्पतरुप्रमा मरुचयो मानाधिकाश्चोद्रध्वजा
जीवनरस्य गगनप्रोल्लङ्घिनो भास्वराः ॥ १८४ ॥
करनेवाला है, जो सकल जगत्के स्वामी हैं और जो भव्य जीवरूपी कमलोंको विकसित करनेके लिए सूर्य के समान हैं ऐसे श्री वृषभ जिनेन्द्र देव हम सबकी रक्षा करें ॥। १८० || जिसके पल्लव हिल रहे हैं, जिसके पत्ते और फूल अनेक वर्णके हैं, जो उत्तम शोभासे सहित है, जिसका स्कन्ध मरकतमणियों से बना हुआ है, जिसका शरीर अत्यन्त उज्ज्वल है, जिसकी छाया बहुत ही सघन है, और समस्त लोगोंका शोक नष्ट करनेकी जिसकी इच्छा है ऐसा जिनका अशोकवृक्ष सुशोभित हो रहा है और जो भव्य जीवरूपी कमलोंके समूहको विकसित करने के लिए सूर्यके समान हैं ऐसे वे बहिरंग और अन्तरंग लक्ष्मी के अधिपति श्री वृषभ जिनेन्द्र सदा जयवन्त रहें ||१८१|| जिसका शरीर जतिशय सुन्दर है, जो वायुसे हिलती हुई अपनी चंचल शाखाओंसे सदा फूलोंके उपहार फैलाता रहता है, जिसने समस्त दिशाएँ व्याप्त कर ली हैं, जो कोयलोंके मधुर शब्दरूपी गाने-बजानेसे मनोहर है और जो नृत्य करती हुई शाखाओंके
प्रभाग से भक्तिपूर्वक जिनेन्द्र भगवान्की सेवा करते हुए भव्यके समान सुशोभित हो रहा है ऐसा वह श्री जिनेन्द्रदेवका शोभायुक्त अशोकवृक्ष सदा जयवन्त रहे ||१८२|| जिस समवसरणकी भूमि में देव लोग प्रसन्न होकर अपने नेत्रोंकी पंक्तिके समान चंचल और उन्मत्त भ्रमरोंसे सेवित फूलोंकी पंक्ति आकाशके अग्रभागसे छोड़ते हैं अर्थात् पुष्पवर्षा करते हैं और जो वायुसे हिलती हुई अपनी ध्वजाओंकी पंक्तिसे आकाशको साफ करती हुईसी सुशोभित होती है ऐसी वह समवसरणभूमि चिरकाल तक हम सबके कल्याणको विस्तृत करे ।। १८३|| रत्नोंकी प्रभासे देदीप्यमान रहनेवाले जिस धूलीसालमें सूर्य निमग्नकिरण होकर अत्यन्त शोभायमान होता है ऐसा वह भगवान्का निर्मल धूलीसाल सदा जयवन्त रहे तथा जो कल्पवृक्षसे भी अधिक कान्तिवाले हैं जिनपर ऊँची ध्वजाएँ फहरा रही हैं, जो आकाशको उल्लंघन कर रही हैं, और जो अतिशय देदीप्यमान हैं ऐसे जिनेन्द्रदेव के
2
१. शाखाभि: । २. भासुरो द०, ल०, प० । -भासुरे इ० अ०, प० । ३. कल्पवृक्ष प्रभासदृशतेजसः । ४. ऊर्ध्वगतध्वजाः ।