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आदिपुराणम् तुभ्यं नमः सकलपातिमझम्बपायसंभूतकेवलमयामकलोचनाय । तुभ्यं नमो दुरितबन्धनशङ्गलानां छेत्ने' भवार्गलमिदे जिनकुञ्जराय ॥१५॥ तुम्यं नमत्रिभुवनैकपितामहाय तुभ्यं नमः परमनिर्वृतिकारणाय । तुभ्यं नमोऽधिगुरवेंगुरवे गुणोघेस्तुभ्यं नमो विदितविश्वजगत्त्रयाय ॥१६॥ इत्युच्चकैः स्तुतिमुदारगुणानुरागादस्माभिरीक्ष रचितां त्वयि चित्रवर्णाम् । देव प्रसीद परमेश्वर भक्तिपूतां पादार्पिता खाजमिवानुगृहाण चावीम् ॥१६॥ स्वामीमहे जिन भवन्तमनुस्मरामस्त्वां कुमकीकृतकरा वयमानमामः । स्वरसंस्तुतावुपचितं यदिहाच पुण्यं तेनास्तु भक्तिरमका त्वयि नः प्रससा ॥१६॥ इत्थं सुरासुरनरोरगयक्षसिगन्धर्वचारण गणेस्सममिवोधाःr द्वात्रिंशदिन्द्रवृषमा वृषभाय तस्मै चकुर्नमः स्तुतिशतैनतमौलयस्ते ॥१३॥ स्तुत्वेति तं जिनमजं जगदेकबन्धुं मक्त्या नतोल्मुकुटैरमरैः सहेन्द्राः । धर्मप्रिया जिनपति परितो यथास्वमास्थानभूमिमभजन जिमसम्मुखास्याः ॥१६॥
योगीश्वर अर्थात् मुनियोंके अधिपति ( पक्षमें महेश ) कहते हैं इसलिए हे संसारका अन्त करनेवाले जिनेन्द, ब्रह्मा, विष्ण और महेशरूप आपकी हम लोग भी उपासना करते हैं॥२५ हे नाथ, समस्त घातियाकर्मरूपी मलके नष्ट हो जानेसे जिनके केवलज्ञानरूपी निर्मल नेत्र उत्पन्न हुआ है ऐसे आपके लिए नमस्कार हो। जो पापबन्धरूपी सांकलको छेदनेवाले हैं, संसाररूपी अर्गलको भेदनेवाले हैं और कर्मरूपी शत्रुओंको जीतनेवाले जिनोंमें हाथोके समान श्रेष्ठ हैं ऐसे आपके लिए नमस्कार हो ॥१५९।। हे भगवन्, आप तीनों लोकोंके एक पितामह हैं इसलिए आपको नमस्कार-हो, आप परम निर्वृति अर्थात् मोक्ष अथवा सुखके कारण हैं इसलिए आपको नमस्कार हो, आप गुरुओंके भी गुरु हैं तथा गुणोंके समूहसे भी गुरु अर्थात् श्रेष्ठ हैं इसलिए भी आपको नमस्कार हो, इसके सिवाय आपने समस्त तीनों लोकोंको जान लिया है इसलिए भी आपको नमस्कार हो ॥१६०॥ हे ईश, आपके उदार गुणोंमें अनुराग होनेसे हम लोगांने आपकी यह अनेक वर्णों (अक्षरों अथवा रंगों) वाली उत्तम स्तुति की है इसलिए हे देव, हे परमेश्वर, हम सबपर प्रसन्न होइए और भक्तिसे पवित्र तथा चरणोंमें अर्पित की हुई सुन्दर मालाके समान इसे स्वीकार कीजिए ॥१६१।। हे जिनेन्द्र, आपकी स्तुति कर हम लोग आपका बार-बार स्मरण करते हैं, और हाथ जोड़कर आपको नमस्कार करते हैं। हे भगवन् , आपको स्तुति करनेसे आज यहाँ हम लोगोंको जो कुछ पुण्यका संचय हुआ है उससे हम लोगोंकी आपमें निर्मल और प्रसन्नरूप भक्ति हो ।। १६२ । इस प्रकार जिनका झान अतिशय प्रकाशमान हो रहा है ऐसे मुख्य-मुख्य बत्तीस इन्द्रोंने, (भवनवासी १०, ध्यन्तर ८, ज्योतिषी २ और कल्पवासी १२) सुर, असुर, मनुष्य, नागेन्द्र, यक्ष, सिद्ध, गन्धर्व और चारणोंके समूहके साथ-साथ सैकड़ों स्तुतियों-द्वारा मस्तक झुकाते हुए उन भगवान वृषभदेवके लिए नमस्कार किया ॥ १६३ ।। इस प्रकार धर्मसे प्रेम रखनेवाले इन्द्र लोग, अपने बड़े-बड़े मुकुटोंको नभ्रीभूत करनेवाले देवोंके साथ-साथ फिर कभी उत्पन्न नहीं होनेवाले और जगत्के एकमात्र बन्धु जिनेन्द्रदेवकी स्तुति कर समवसरण भूमिमें जिनेन्द्र भगवान्की ओर मुखकर उन्हींके चारों ओर यथायोग्यरूपसे बैठ गये ॥१६॥
१. छेदकाय । २. भेदकाय । ३. अधिकगुरवे। ४. '-मीड्य है' इति 'ल' पुस्तकगतो पाठोऽशुरः । ५.स्तुतिपाठक । ६. इन्द्रश्रेष्ठाः । ७. जिनपतेः समन्तात् ।