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आदिपुराणम् अष्टाशीत्यङ्गुलान्येषां रुन्द्रत्वं परिकीर्तितम् । पञ्चविंशतिकोदण्डान्यमीषामन्तरं विदुः ॥२१३॥ सिद्धार्थचैत्य वृक्षाश्च प्राकारवनवेदिकाः । स्तूपाः सतोरणा मानस्तम्भाः स्तम्भाश्त्र केतवाः ॥२१४॥ प्रोक्तास्तीर्थकृदुत्सेधादुरसेधेन द्विषड्गुणाः । दयानुरूपमतेषां रीन्द्रयमाहुर्मनीषिणः ॥२१५॥ वनानां स्वगृहाणां च पर्वतनां तथैव च । भवेदुन्नतिरपत्र वर्णितागमकोविदः ॥२१६॥ भवेयुगिरयो रुन्द्राः स्वोत्सेधादृष्टयंगुणम् । स्तूपानां रीन्द्रयमुच्छायात् सातिरेक विदो विदुः ॥२१७॥ उशन्ति वेदिकादीनां स्वोत्सेधस्य चतुर्थकम् । पार्थवं परमज्ञानमहाकुपारपारगाः ॥२१८॥ स्रग्वस्त्रसहसानाज हंसवीन मृगशिनाम् । वृषभभेन्द्रचक्राणां ध्वजाः स्युर्दशभंदकाः ॥२१९॥ अष्टोत्तरशतं ज्ञेयाः प्रत्येकं पालिकेतनाः । एकैकस्यां दिशि प्रोच्चास्तरङ्गास्तोयधेरिव २२०॥ पवनान्दोलितस्तेषां केतूनामंशुकोस्करः । च्याउहपरिवाभासीद जिनेज्यायै नरामरान् ॥२२॥ स्रग्ध्वजेषु नजो दिव्याः सौमनस्यो ललम्बिरे । भन्यानां सौमनस्थाय"कल्पिवास्त्रिदिवाधिपः॥२२२॥ श्लक्ष्णांशुकध्वजा रंजुः पवनान्दोलितोस्थिताः । व्योमाम्बुधेरिवोद्भूतास्तरङ्गास्तुङ्गमूर्तयः ॥२२३॥ बर्हिध्वजेषु बर्हालिं लीलयोरिक्षप्य बहिणः । रेजुर्ग्रस्तांशुकाः सर्पबुद्धधव ग्रस्तकृत्तयः ॥२२४॥
हैं, देदीप्यामान कान्तिसे युक्त होते हैं, जगत्मान्य होते हैं-संसारके लोग उनका सत्कार करते हैं और अतिशय उन्नत अर्थात् उदारहृदय होते हैं ।।२१२।। उन खम्भोंकी चौड़ाई अट्ठासी अंगुल कही गयी है और उनका अन्तर पचीस-पचीस धनुष प्रमाण जानना चाहिए ॥२१३।। सिद्धार्थवृक्ष, चैत्यवृक्ष, कोट, वनवेदिका, स्तूप, तोरणसहित मानस्तम्भ और ध्वजाओंके खम्भे ये सब तीर्थंकरोंके शरीरकी ऊँचाईसे बारह गुने ऊँचे होते हैं और विद्वानोंने इनकी चौड़ाई आदि इनकी लम्बाईके अनुरूप बतलायी है ।।२१४-२१५।। इसी प्रकार आगमके जाननेवाले विद्वानोंने वन, वनके मकान और पर्वतोंकी भी यही ऊँचाई बतलायी है अर्थात् ये सब भी तीर्थंकरके शरीरसे बारह गुने ऊँचे होते हैं ॥२१६।। पर्वत अपनी ऊँचाईसे आठ गुने चौड़े होते हैं और स्तूपोंका व्यास विद्वानोंने अपनी ऊँचाईसे कुछ अधिक बतलाया है ॥२१७॥ प्रमज्ञानरूपी समुद्र के पारगामी गणधर देवोंने वनवेदियोंकी चौड़ाई वनको ऊँचाईसे चौथाई बतलायी है ।।२१८|| ध्वजाओंमें माला, वस्त्र, मयूर, कमल, हंस, गरुड़, सिंह, बैल, हाथी और चक्रके चिह्न थे इसलिए उनके दस भेद हो गये थे ॥२१९॥ एक-एक दिशामें एक-एक प्रकारकी ध्वजाएँ एक सौ आठ एक सौ आठ थीं, वे ध्वजाएँ बहुत ही ऊँची थी और समुद्रकी लहरोंके. समान जान पड़ती थीं ।२२०॥ वायुसे हिलता हुआ उन ध्वजाओंके वस्त्रोंका समुदाय ऐसा. सुशोभित हो रहा था मानो जिनेन्द्र भगवानकी पूजा करनेके लिए मनुष्य और देवोंको बुलाना ही चाहता हो ॥२२१॥ मालाओंके चिह्नवाली ध्वजाओंपर फूलोंकी बनी हुई दिव्यमालाएँ लटक रही थीं और वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो भव्य-जीवोंका सौमनस्य अर्थात् सरल परिणाम दिखलानेके लिए ही इन्द्रोंने उन्हें बनाया हो ।।२२२॥ वस्त्रोंके चिह्नवाली ध्वजाएँ महीन और सफेद वस्त्रोंकी बनी हुई थी तथा वे वायुसे हिल-हिलकर उड़ रही थीं जिससे ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो आकाशरूपी समुद्रकी उठती हुई बड़ी ऊँची लहरें ही हों ।।२२।। मयूरोंके चिह्नवाली ध्वजाओंमें जो मयूर बने हुए थे वे लीलापूर्वक अपनी पूँछ फैलाये हुए थे और साँपकी बुद्धिसे वस्त्रोंको निगल रहे थे जिससे ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो
१. सिद्धार्थवृक्षा: वक्ष्यन्ते चैत्यवृक्षा उक्ताः । २. केतुसंबन्धिनः । ३. द्वादशगुणा इत्यर्थः । ४.-मुन्छितेसिं सातिरेकं ६०, अ०। ५. साधिकम् । ६. सम्यग्ज्ञानिनः । ७. पृथुत्वम् । ८. मयूर । ९. गरुड़। १०. श्रेणिध्वजाः । ११. व्याह्वानमिच्छुः । १२. बभौ । १३. सुमनोभिः कुसुमैः कृताः। १४. सुमनस्कृताय । १५. पिच्छसमूहम् । १६. प्रस्तनिर्मोकाः ।