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आदिपुराणम् धूपगन्धैर्जिनेन्द्राङ्गसौगन्ध्यबहलीकृतैः । सुरभीकृतविश्वाऱ्या यावाद् गन्धकुटीश्रुतिम् ॥२२॥ गन्धानामिव या सूतिर्भासा येवाधिदेवता । शोभानां प्रसवक्ष्मेव या लक्ष्मीमधिको दधे ॥२३॥ धनुषां षट्शतीमेषा विस्तीर्णा यावदायता । विष्कम्भा-साधिकोच्छाया मानोन्मानप्रमान्विता ॥२४॥
विद्युन्मालावृत्तम् 'तस्या मध्ये सैंड पीठं नानारखबाताकीर्णम् । मेरोः शङ्ग न्याकुर्वाणं च शकादेशाद् वित्तेट"॥२५॥ मानुढेपि श्रीमद्वैमं तुझं मक्त्या जिष्णु भक्तुम्"। मेरः शुश" स्वं वा निम्ये पीठव्याजाद् दी भासा
समानिकावृतम् -- . ---- यत्प्रसर्पदंशुष्टदिङ्मुखं महर्दिमासि । चाहरलसारमूर्ति भासते स्म नेत्रहारि ॥२७॥ पृथुप्रदीप्तदेहकं स्फुरत्प्रमाप्रतानकम् । परापरबमासुरं सुराद्रिहासि यद् बभौ ॥२८॥
फूलोंकी माला धारण करती है उसी प्रकार वह गन्धकुटी भी जगह-जगह मालाएँ धारण कर रही थी, और स्त्रीके अंग जिस प्रकार नाना आभरणोंसे देदीप्यमान होते हैं उसी प्रकार उस गम्धकुटीके अंग (प्रदेश) भी नाना आभरणोंसे देदीप्यमान हो रहे थे ।।२१।। भगवान्के शरीरको सुगन्धिसे बढ़ी हुई धूपकी सुगन्धिसे उसने समस्त दिशाएँ सुगन्धित कर दी थीं इसलिए ही वह गन्धकुटी इस सार्थक नामको धारण कर रही थी ॥२२॥ अथवा वह गन्धकुटी ऐसी शोभा धारण कर रही थी मानो सुगन्धिको उत्पन्न करनेवाली हो हो, कान्तिको अधिदेवता अर्थात् स्वामिनी ही हो और शोभाओंको उत्पन्न करनेवाली भूमि हो हो ।।२३।। वह गन्धकुटी छह सौ धनुष चौड़ी थी, उतनी ही लम्बी थी और चौड़ाई में कुछ अधिक ऊँची थी इस प्रकार वह मान और उन्मानके प्रमाणसे सहित थी॥ २४ ॥ उस गन्धकुटीके मध्यमें धनपतिने एक सिंहासन बनाया था जो कि अनेक प्रकारके रत्नोंके समूहसे जड़ा हुआ था और मेरु पर्वतके शिखरको तिरस्कृत कर रहा था ॥२५॥ वह सिंहासन सुवर्णका बना हुआ था, ऊँचा था, अतिशय शोभायुक्त था और अपनी कान्तिसे सूर्यको भी लज्जित कर रहा था तथा ऐसा जान पड़ता था मानो जिनेन्द्र भगवान्की सेवा करनेके लिए सिंहासनके बहानेसे सुमेरु पर्वत ही अपने कान्तिसे देदीप्यमान शिखरको ले आया हो ॥२६ ॥ जिससे निकलती हुई किरणोंसे समस्त दिशाएँ व्याप्त हो रही थीं, जो बड़े भारी ऐश्वर्यसे प्रकाशमान हो रहा था, जिसका आकार लगे हुए सुन्दर रत्नोंसे अतिशय श्रेष्ठ था और जो नेत्रोंको हरण करनेवाला था ऐसा वह सिंहासन बहुत ही शोभायमान हो रहा था ।। २७ ॥ जिसका आकार बहुत बड़ा और देदीप्यमान था, जिससे कान्तिका समूह निकल रहा था, जो श्रेष्ठ रबोंसे प्रकाशमान था और जो अपनी शोभासे मेरु पर्वतकी भी हँसी करता था ऐसा वह सिंहासन बहुत अधिक सुशोभित हो रहा था ।। २८ ।।
१. विश्वाशा ल०, म० । विश्व जगत् । अर्थ्याम् अर्थादनपेताम् । २. संज्ञाम् । ३. कान्तीनाम् । ४. गन्धकुटी। ५. उत्पत्ति। ६. सैषा ल०, म० । ७. विष्कम्भा किञ्चिदधिकोत्सेधा। ८. गन्धकुटयाः । ९. अधःकुर्वाणम् । १०. शासनात् । ११. धनदः। १२. भानुं हेपयति लज्जयति । १३. सर्वज्ञम् । १४. भजनाय । १५. आत्मीयम् । १६. इव । १७. दीप्तं ल०, म०। १८. सुरादि हसतीत्येवं शीलम् ।