Book Title: Adi Puran Part 1
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

Previous | Next

Page 648
________________ ५५८ आदिपुराणम् तत्र जिनार्क विभान्ति गुणांशवः सकलकर्मकलङ्कविनिःसृताः । धनवियोगविनिर्मलमूर्तयो दिनमणेरिव भासुरमानवः ॥ १२३॥ गुणमसवमनन्ततयान्वितान् जिन समुहसेऽविविनिर्महान् । जलधिरात्म गभीरजलाश्रितानिव मणीन मकाननणुत्विषः ॥ १२४ ॥ स्व मिनसंसृतिवल्लरिकामिमामतिततामुरुदुः खफकप्रदाम् । जननमृत्युजराकुसुमाचितां शमकरैर्भगवन्नुदपीपटः ॥ १२५ ॥ तामरसवृत्तम् जिनवर मोहमहापृतनेशान् प्रवलतरांश्चतुरस्तु कषायान् । निशिततपोमय तीब्रमहांसि "प्रहतिमिराशुतरामजयस्वम् ॥ १२६ ॥ मनसिजशत्रुमजय्यमलक्ष्यं विरतिमयी 'शितहेतिततिस्ते । समरमरे विनिपातयति स्म स्वमसि ततो भुवनैकगरिष्ठः ॥१२७॥ जितमदनस्य तवेश महत्त्वं वपुरिदमेव हि शास्ति मनोज्ञम् । न विकृतिभाग्न कटाक्षनिरीक्षा 'परमविकार मनामरयोवम् ॥ १२८ ॥ प्रविकुरुते हृदि यस्य मनोजः स विकुरुते स्फुटरागपरागः” । विकृतिरनङ्ग जितस्तव नाभूद् विभवभवान्भुवनैकगुरुतत् ॥ १२९ ॥ १० कीजिए || १२२|| हे जिनेन्द्ररूपी सूर्य, जिस प्रकार बादलोंके हट जानेसे अतिशय निर्मल देदीप्यमान किरणें सुशोभित होती हैं उसी प्रकार समस्त कर्मरूपी कलंकके हट जाने से प्रकट हुई आपकी गुणरूपी किरणें अतिशय सुशोभित हो रही हैं || १२३ || हे जिनेन्द्र, जिस प्रकार समुद्र अपने गहरे जलमें रहनेवाले निर्मल और विशाल कान्तिके धारक मणियोंको धारण करता है उसी प्रकार आप अतिशय निर्मल अनन्तगुणरूपी मणियोंको धारण कर रहे हैं ॥१२४|| हे स्वामिन्, जो अत्यन्त विस्तृत है, बड़े-बड़े दुःखरूपी फलोंको देनेवाली है, और जन्म-मृत्यु तथा बुढ़ापारूपी फूलोंसे व्याप्त है ऐसी इस संसाररूपी लताको हे भगवन्, आपने अपने शान्त परिणामरूपी हाथोंसे उखाड़कर फेंक दिया है ।। १२५ ।। हे जिनवर, आपने मोहकी बड़ी भारी सेनाके सेनापति तथा अतिशय शूर-वीर चार कषायोंको तीव्र तपश्चरणरूपी पैनी और बड़ी तलबार के प्रहारोंसे बहुत शीघ्र जीत लिया है || १२६ || हे भगवन्, जो किसीके द्वारा जीता न जा सके और जो दिखाई भी न पड़े ऐसे कामदेवरूपी शत्रुको आपके चारित्ररूपी तीक्ष्ण हथियारोंके समूहने मार गिराया है इसलिए तीनों लोकोंमें आप ही सबसे श्रेष्ठ गुरु हैं ||१२७|| हे ईश्वर, जो न कभी विकारभावको प्राप्त होता है, न किसीको कटाक्षोंसे देखता है, जो विकाररहित है और आभरणोंके बिना ही सुशोभित रहता है ऐसा यह आपका सुन्दर शरीर ही कामदेवको जीतनेवाले आपके माहात्म्यको प्रकट कर रहा है || १२८|| हे संसाररहित जिनेन्द्र, कामदेव जिसके हृदयमें प्रवेश करता है वह प्रकट हुए रागरूपी परागसे युक्त - होकर अनेक प्रकारकी विकारयुक्त चेष्टाएँ करने लगता है परन्तु कामदेवको जीतनेवाले आपके कुछ भी विकार नहीं पाया जाता है इसलिए आप तीनों लोकोंके मुख्य गुरु हैं ॥ १२९ ॥ १. किरणाः । २. उपशमहस्तैः । पक्षे सूर्यकिरणैः । ३. उत्पाटयसि स्म । विनाशयसि स्मेत्यर्थः । ४. चतुष्कम् । ५. प्रभृतिभि-ल० द० । असितोमरादिभिः । ६. निशितायुषः । ७. अतिशयेन गुरुः । ८. न विकारकारि । ९. प्रशस्तम् । १०. विकारं करोति । ११. रागधूलि: । १२. कारणात् ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782