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त्रयोविंशं पर्व
५६१ प्रहर्षिणीवृत्तम् त्वं मित्रं त्वमसि गुरुस्त्वमेव मर्ता त्वं स्रष्टा भुवनपितामहस्त्वमेव । स्वां ध्यायममृतिसुखं प्रयाति जन्तुस्त्रायस्य त्रिजगदिदं त्वमच पातात् ॥१४३॥
रुचिरावृत्तम् परं पदं परमसुखोदयास्पदं विवित्स वश्चिरमिह योगिनोऽक्षरम् । स्वयोदितं जिन परमागमाक्षरं विचिन्वत मवविलयाय सदियः ॥१४॥ स्वयोदिते पथि जिन ये वितन्वतेः परां शृति प्रमदपरम्परायुजः । त एवं संसृतिलत्तिको प्रतायिनी दहन्त्यर्क स्मृतिदहनार्चिषा भृशम् ॥१४५॥
__ मत्तमयूरवृत्तम् वातोद्धृताः क्षीरपयोधेरिव वोचीरुत्प्रेक्ष्या मूश्चामरपङ्क्तीर्भवदीयाः । पीयूषांशोशिसमें तीरिव शुभ्रा मोमुच्यन्ते संसृतिमाजो मवबन्धात् ॥१४६॥ सैंह पीठं स्वां"तिमिद्धामतिमार्नु" तन्वानं तदाति विमोस्ते पृथु तुङ्गम् । मेरोः शृङ्ग वा मणिनद्धं सुरसेन्यं' 'न्यक्कुर्वाणं लोकमशेषं स्वमहिम्ना ॥१४७॥
मजुभाषिणीवृत्तम् महितोदयस्य शिवमार्गदेशिनः सुरशिल्पिनिर्मितमदोऽहंतस्तव । "प्रथते सिवातपनिवारणत्रयं शरदिन्दुविभ्वमिव काम्तिमत्तया ॥१४८॥
लोग बार-बार नमस्कार करते हैं ॥१४२।। हे नाथ, इस संसारमें आप ही मित्र हैं, आप ही गुरु हैं, आप ही स्वामी हैं, आप ही स्रष्टा हैं और आप ही जगत्के पितामह हैं। आपका ध्यान करनेवाला जीव अवश्य ही मृत्युरहित सुख अर्थात् मोक्षसुखको प्राप्त होता है इसलिए हे भगवन, आज आप इन तीनों लोकोंको नष्ट होनेसे बचाइए-इन्हें ऐसा मार्ग बतलाइए जिससे ये जन्म-मरणके दुःखोंसे बच कर मोक्षका अनन्त सुख प्राप्त कर सकें ॥१४३।। हे जिनेन्द्र, परम सुखकी प्राप्तिके स्थान तथा अविनाशी उत्कृष्ट पद (मोक्ष) को जाननेकी इच्छा करनेवाले उत्तम बुद्धिमान योगी संसारका नाश करनेके लिए आपके द्वारा कहे हुए परमागमके अक्षरोंका चिन्तन करते हैं ॥१४४॥ हे जिनराज, जो मनुष्य आपके द्वारा बतलाये हुए मागेमें परम सन्तोष धारण करते हैं अथवा आनन्दकी परम्परासे यक्त होते हैं ही इस अतिशय विस्तृत संसाररूपी लताको आपके व्यानरूपी अग्निकी ज्वालासे विलकुल जला पाते हैं ॥१४५।। हे भगवन, वायुसे उठी हुई क्षीरसमुद्रको लहरोंके समान अथवा चन्द्रमाकी किरणोंके समूहके समान सुशोभित होनेवाली आपकी इन सफेद चमरोंकी पंक्तियोंको देखकर संसारी जीव अवश्य ही संसाररूपी बन्धनसे मुक्त हो जाते हैं ॥१४६॥ हे विभो, सूर्यको भी तिरस्कृत करनेवाली और अतिशय देदीप्यमान अपनी कान्तिको चारों ओर फैलाता हुआ, अत्यन्त ऊँचा, मणियोंसे जड़ा हुआ, देवोंके द्वारा सेवनीय और अपनी महिमासे समस्त लोकोंको नीचा करता हुआ यह आपका सिंहासन मेरु पर्वतके शिखरके समान शोभायमान हो रहा है ॥१४७॥ जिनका ऐश्वर्य अतिशय उत्कृष्ट है और जो मोक्षमार्गका उपदेश देनेवाले हैं ऐसे आप अरहन्त देवका यह देवरूप कारीगरोंके द्वारा बनाया
१. संसाराब्धी पतनात् । २. वेत्तुमिच्छवः । ३. विचारयन्ति । ४. सन्तोषम् । ५. ते भव्या एव । ६. विस्तृताम् । ७. दृष्ट्वा । ८. चन्द्रस्य । ९. दीप्तिसन्ततिः। १०. निजकान्तिम् । ११. अतिक्रान्तभानुम् । . १२. मणिबद्धम् । १३. अधःकुर्वाणम् । १४. प्रकटीकरोति ।