________________
५५६
आदिपुराणम् व्यधान्मौक्तिकोपैविमोस्तण्डुलेज्या स्वचित्तप्रसादैरिव स्वच्छमामिः । तथाम्लानमन्दारमालाशतैश्च प्रभोः पादपूजामकार्षात् प्रहर्षात् ॥११॥ ततो रत्नदीपैर्जिनामयुतीनां प्रसण मन्दीकृतारमप्रकाशः। जिनाकं शची प्रार्चिचभक्ति निघ्ना न भक्ता हि युक्त विदन्त्यप्ययुक्तम् ॥१॥२॥ ददौ धूपमिद्धं च पीयूषपिण्डं महास्थाले संस्थं ज्वलदीपदीपम् । सतारं शशाङ्क समाश्लिष्टराहुं जिनाच्यम्जयोर्वा समीपं प्रपत्रम् ॥ फलैरप्यनल्पैस्ततामोदहवनायूथैल्यासेन्यमानः । जिनं गातुकामैरिवातिप्रमोदात् फलायार्चयामास सुत्रामजाया ॥११॥ इतीस्थं स्वभक्त्या सुरैरचिंतेऽईन् किमेमिस्तु कृत्यं कृतार्थस्य भर्तुः। विरागो न नुष्यस्यपि द्वेष्टि वासौ फलश्च स्वमतानहो योयुंजीति ॥१५॥ अथोच्च: सुरेशा गिरामीशितारं जिनं स्तोतुकामाः प्रहष्टान्तरमाः । वचस्सून मालामिमां चित्रवणां समुच्चिक्षिपुर्मक्तिहस्तैरिति स्वैः ॥१६॥
उत्पन्न हुई सुगन्धसे भगवान के पादपीठ ( सिंहासन )की पूजा की थी ॥११०॥ इसी प्रकार अपने चित्तको प्रसन्नताके समान स्वच्छ कान्तिको धारण करनेवाले मोतियोंके समूहोंसे भगवान्की अक्षतोंसे होनेवाली पूजा की तथा कभी नहीं मुरझानेवाली कल्पवृक्षके फूलोंकी सैकड़ों मालाओंसे बड़े हर्षके साथ भगवान्के चरणोंकी पूजा की ॥१११।। तदनन्तर भक्तिके वशीभूत हुई इन्द्राणीने जिनेन्द्र भगवान्के शरीरकी कान्तिके प्रसारसे जिनका निजी प्रकाश मन्द पड़ गया है ऐसे रत्नमय दीपकोंसे जिनेन्द्ररूपी सूर्यकी पूजा की थी सो ठीक ही है क्योंकि भक्तपुरुष योग्य अथवा अयोग्य कुछ भी नहीं समझते। भावार्थ-यह कार्य करना योग्य है अथवा अयोग्य, इस बातका विचार भक्ति के सामने नहीं रहता। यही कारण था कि इन्द्राणीने जिनेन्द्ररूपी सूर्यकी पूजा दीपकों द्वारा की थी ॥११२।। तदनन्तर इन्द्राणीने धूप तथा जलते हुए दीपकोंसे देदीप्यमान और बड़े भारी थालमें रखा हुआ, सुशोभित अमृतका पिण्ड भगवान के लिए समर्पित किया, वह थालमें रखा हुआ धूप तथा दीपकोंसे सुशोभित अमृतका पिण्ड ऐसा जान पड़ता था मानो ताराओंसे सहित और राहुसे आलिंगित चन्द्रमा ही जिनेन्द्रभगवान्के चरणकमलोंके समीप आया हो ॥११३॥ तदनन्तर जो चारों ओर फैली हुई सुगन्धिसे बहुत ही मनोहर थे और जो शब्द करते हुए भ्रमरोंके समूहोंसे सेवनीय होनेके कारण ऐसे जान पड़ते थे मानो भगवान्का यश ही गा रहे हों ऐसे अनेक फलोंके द्वारा इन्द्राणीने बड़े भारी हर्षसे भगवान की पूजा की थी ॥११४।। इसी प्रकार देवोंने भी भक्तिपूर्वक
हेन्त भगवानकी पूजा की थी परन्तु कृतकृत्य भगवानको इन सबसे क्या प्रयोजन था ? वे यद्यपि वीतराग थे न किसीसे सन्तुष्ट होते थे और न किसीसे द्वेष ही करते थे तथापि अपने भक्तोंको इष्टफलोंसे युक्त कर ही देते थे यह एक आश्चर्यकी बात थी ॥११५।।
अथानन्तर-जिन्हें समस्त विद्याओंके स्वामी जिनेन्द्रभगवानकी स्तुति करनेकी इच्छा हुई ऐसे वे बड़े-बड़े इन्द्र प्रसन्नचित्त होकर अपने भक्तिरूपी हाथोंसे चित्र विचित्र वर्णोंवाली इस वचनरूपी पुष्पोंकी मालाको अर्पित करने लगे-नीचे लिखे अनुसार भगवानकी
१. अक्षतपुञ्जपूजाम् । २. भक्त्यधीना । ३. ददे द०,०। ४. महाभाजनस्थम् । ५. तारकासहितम् । ६. प्राप्तम् । ७.द्वेषं करोति । ८. भृशं युनक्ति । ९ वाक्प्रसनमालाम् ।