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आदिपुराणम्
प्रविस्तारिशुभ्रातपत्रत्रयेण स्फुरन्मौकिकेनाचत पुस्थितेन । स्वमाहात्म्यमैश्वर्य मुद्यद्यशश्च स्फुटीकर्तुमीशं तमीशानमाद्यम् ॥९८॥ प्रदृश्याथ दूराग्रतस्वोत्तमाङ्गाः सुरेन्द्राः प्रणेमुर्महीस्पृष्टजानु । किरीटाप्रभाजां खजां मालिकाभिर्जिनेन्द्रा त्रियुग्मं स्फुटं प्रार्थयन्तः ॥ ९९ ॥ तदाई प्रणामे समुत्फुल्लनेत्राः सुरेन्द्राः विरेजुः शुचिस्मेरवक्त्राः । समं वा सरोभिः सपद्मोत्पलैः स्वः कुलक्ष्माधरेन्द्राः सुरात्रिं भजन्तः ॥ १०० ॥ शची चाप्सरोऽशेषदेवीसमेता जिनात्रयोः प्रणामं चकारार्थयन्ती । स्ववक्त्रोरुपद्मैः स्वनेत्रोत्पलैश्च प्रसवैश्च भावप्रसूनैरनूनैः ॥ १०१ ॥ जिनस्यापद्मौ नखांशुप्रतानैः सुरानास्पृशन्तौ समेत्याधिमूर्धम् ।
जाम्लानमूर्त्या स्वशेषां पवित्रां "शिरस्यापिपेता मिवानुगृहीतुम् ॥१०२॥ जिनेन्द्राङ्घ्रिमासा पवित्रीकृतं ते 'स्वमूहुः सुरेन्द्राः प्रणम्बातिमक्स्या । नखांशुमतानाम्बुलब्धामिषेकं समुत्सङ्गमप्युत्तमं चोत्तमाङ्गम् ॥ १०३ ॥
मोतियोंसे सुशोभित आकाशमें स्थित अपने विस्तृत तथा धवल छत्रत्रयसे ऐसे जान पड़ते थे मानो अपना माहात्म्य ऐश्वर्य और फैलते हुए उत्कृष्ट यशको ही प्रकट कर रहे हों ऐसे प्रथम तीर्थंकर भगवान् वृषभदेवके उस सौधर्मेन्द्रने दर्शन किये ।। ९२-९८ ।। दर्शन कर दूरसे ही जिन्होंने अपने मस्तक नम्रीभूत कर लिये हैं ऐसे इन्द्रोंने जमीनपर घुटने टेककर उन्हें प्रणाम किया, प्रणाम करते समय वे इन्द्र ऐसे जान पड़ते थे मानो अपने मुकुटोंके अग्रभागमें लगी हुई मालाओंके समूहसे जिनेन्द्र भगवान के दोनों चरणोंकी पूजा ही कर रहे हों ।। ९९ ।। उन अरहन्त भगवान्को प्रणाम करते समय जिनके नेत्र हर्षसे प्रफुल्लित हो गये और मुख सफेद मन्द हास्यसे युक्त हो रहे थे इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो जिनमें सफेद और नील कमल खिले हुए हैं ऐसे अपने सरोवरोंके साथ-साथ कुलाचल पर्वत सुमेरु पर्वतकी ही सेवा कर रहे हों ॥ १००॥ उसी समय अप्सराओं तथा समस्त देवियोंसे सहित इन्द्राणीने भी भगवान्के चरणोंको प्रणाम किया था, प्रणाम करते समय वह इन्द्राणी ऐसी जान पड़ती थी मानो अपने प्रफुल्लित हुए मुखरूपी कमलोंसे, नेत्ररूपी नील कमलोंसे और विशुद्ध भावरूपी बहुत भारी पुष्पोंसे भगवान् की पूजा ही कर रही हो ।। १०१ ।। जिनेन्द्र भगवान्के दोनों ही चरणकमल अपने नखोंकी किरणोंके समूहसे देवोंके मस्तकपर आकर उन्हें स्पर्श कर रहे थे और उससे वे ऐसे जान पड़ते थे मानो कभी म्लान न होनेवाली माला के बहानेसे अनुग्रह करने के लिए उन देवोंके मस्तकपर शेषाक्षत ही अर्पण कर रहे हों ॥ १०२ ॥
इन्द्र लोग, अतिशय भक्तिपूर्वक प्रणाम करते समय जो जिनेन्द्रभगवान के चरणोंकी प्रभासे पवित्र किये गये हैं तथा उन्हींके नखोंकी किरणसमूहरूपी जलसे जिन्हें अभिषेक प्राप्त हुआ है ऐसे अपने उन्नत और अत्यन्त उत्तम मस्तकोंको धारण कर रहे थे। भावार्थप्रणाम करते समय इन्द्रोंके मस्तकपर जो भगवान्के चरणोंकी प्रभा पड़ रही थी उससे वे उन्हें अतिशय पवित्र मानते थे, और जो नखोंकी कान्ति पड़ रही थी उससे उन्हें ऐसा समझते थे मानो उनका जलसे अभिषेक ही किया गया हो इस प्रकार वे अपने उत्तमांग अर्थात् मस्तकको वास्तव में उत्तमांग अर्थात् उत्तम अंग मानकर ही धारण कर रहे थे || १०३ ||
१. अन्यैरसंधार्यमाण सदाकाशस्थितेन । २ इव । ३. प्रशान्तस्वभाव - अ० । ४. परिणामकुसुमैः । ५. मस्तके | ६. निजसिद्धशेषाम् । ७. शिरःस्वापिपेताम् इ० । शिरःस्वापिषाताम् ल०, ६० । ८. अर्पितवन्तो । ९. आत्मीयम् ।