________________
त्रयोविंशं पर्व नखांस्करम्याजमम्याजशोभं पुलोमात्मजा साप्सरा भक्तिनम्रा। स्तनोपान्तलग्नं 'समूऽशुके तबहासाबमानं सन्मुक्किमयाः ॥१०॥ प्रणामक्षणे ते सुरेन्द्रा विरेजुः स्वदेवीसमेता ज्वलभूषणामाः । महाकल्पवृक्षाः समं कल्पवल्ली समित्येव भक्त्या जिनं सेवमानाः ॥१०५॥ अथोत्याय तुष्टया सुरेन्द्राः स्वहस्तैर्जिनस्याधिपूजा प्रचकः प्रतीताः । 'सगन्धैः समास्यैः सधूपैः सदीपैः सदिग्याक्षतैः प्राज्यपीयूष पिण्यैः ॥१०॥ पुरोरावस्या तते भूमिमागे सुरेन्द्रोपनीता बभौ सा सपर्या'। शुदिन्यसंपत्समस्तेव भर्तुः पदोपास्तिमिछः श्रिवा तच्छन ॥१०॥ शची रत्नचूर्णेलिं' भर्तुर तो नोन्मयूल प्ररोहैविचित्राम् । मृदुस्निग्धचिरनेकप्रकारैः सुरेन्द्रायुधानामिव वक्ष्णचूर्णेः ॥१०॥ ततो नीरधारां शुचिं स्वानुकारां सदनभूकारनालनता ताम् । निजां स्वान्तवृत्तिप्रसवामिवाच्छां जिनोपाधि संपातयामास मस्या ॥१०॥ "स्वरुद्भूतगन्धः सुगन्धीकृताशेर्धमद्भागमालाकृतारावहः। जिनात्री स्मरन्ती विमोः पादपीठ समानर्च"भक्त्या तदा शक्रपत्नी ॥१०॥
इन्द्राणी भी जिस समय अप्सराओंके साथ भक्तिपूर्वक नमस्कार कर रही थी उस समय देदीप्यामान मुक्तिरूपी लक्ष्मीके उत्तम हास्यके समान भाचरण करनेवाला और स्वभावसे ही सुन्दर भगवान के नखोंकी किरणोंका समूह उसके स्तनोंके समीप भागमें पड़ रहा था और उससे वह ऐसी जान पड़ती थी मानो सुन्दर वस्त्र ही धारण कर रही हो ॥१०४।। अपनीअपनी देवियोंसे सहित तथा देदीप्यमान आभूषणोंसे सुशोभित थे वे इन्द्र प्रणाम करते ऐसे जान पड़ते थे मानो कल्पलताओंके साथ बड़े-बड़े कल्पवृक्ष ही भगवानकी सेवा कर रहे हों ॥१०५।।
अथानन्तर इन्द्रोंने बड़े सन्तोषके साथ खड़े होकर श्रद्धायुक्त हो अपने ही हाथोंसे गन्ध, पुष्पमाला, धूप, दीप, सुन्दर अक्षत और उत्कृष्ट अमृतके पिण्डों-द्वारा भगवान्के चरणकमों की पूजा की ॥१०६॥ रंगावलीसे व्याप्त हुई भगवानके आगेको भूमिपर इन्द्रोंके द्वारा लाबी यह पूजाकी सामग्री ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो उसके छससे संसारकी समस्त द्रव्यरूपी सम्पदाएँ भगवान के चरणोंकी उपासनाकी इच्छासे ही वहाँ भावी हो ॥१०७॥ इन्द्राणीने भगवानके आगे कोमल चिकने और सूक्ष्म अनेक प्रकार के रत्नोंके चूर्णसे मण्डल बनाया था, वह मण्डल अपरकी ओर उठती हुई किरणोंके अंकुरोंसे चित्र विचित्र हो रहा था और ऐसा जान पड़ता था मानो इन्द्रधनुषर्क कोमल चूर्णसे ही बना हो॥१०८॥ तदनन्तर इन्द्राणीने भक्तिपूर्वक भगवानके चरणोंके समीपमें देदीप्यमान रत्नोंके भंगारकी नालसे निकलती हई पवित्र जलधारा छोड़ी। यह जलधारा इन्द्राणीके समान ही पवित्र थी और उसोको मनोवृत्तिके समान प्रसन्न तथा स्वच्छ थी॥१०९। उसी समय इन्द्राणीने जिनेन्द्रभगवान के चरणोंका स्मरण करते हुए भक्तिपूर्वक जिसने समस्त दिशाएँ सुगन्धित कर दी थी, तथा जो फिरते हुए भ्रमरों की पंक्तियों द्वारा किये हुए शब्दोंसे बहुत ही मनोहर जान पड़ती थी ऐसी स्वर्गलोकमें
१.वहति स्म । २. कल्पलतासमूहेन । ३. सुगन्धः ल०। ४. भूरि । ५. विस्तृते । ६. पूजा । ७. पादपूनाम् । ८. इन्द्रकृतपूजाम्याजेन । ९. रङ्गवलिम्। १०. विस्तारितवती। ११. किरणाकुरैः । १२. सूक्ष्मः अ०, प., ल०, द०, ३० । १३. अघिसमीपे । १४. स्वर्गजात । १५. अर्चयति स्म ।