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प्रयोविंश पर्व भयापश्यदुग्चैज्वलत्पीठमूर्ध्नि स्थितं देवदेवं चतुर्वक्त्रशोमम् । सुरेन्द्रनरेन्द्रमुनीन्द्रश्च वन्यं जगत्सृष्टिसंहारयो:तुमायम् ॥१२॥ शरचन्द्रबिम्बप्रतिस्पर्षि वक्त्रंशरज्जोत्स्नयेव स्वकान्स्यातिकान्तम् । नवोस्फुलनीलाब्जसंशोभि नेत्रं सरः साब्जनीलोत्पलं ध्याहसन्तम् ॥१३॥ ज्वलद्भासुराङ्ग स्फुरनानुबिम्बप्रतिद्वन्दि दहप्रमाग्नौ निमग्नम् । समुत्तुङ्गकार्य सुराराधनीयं महामेरुकापं सुचामीकरामम् ॥१४॥ विशाकोरुवक्षःस्थलस्थारमलक्ष्या जगदर्तुभूयं विनोक्रया ब्रुवाणम् निराहार्यवेषं निरस्तोरुभूषं निरक्षावबोध निरूद्धात्मरोधम् ॥१५॥ सहस्रांशुदीप्रप्रभा मध्यभाजं चलचामरौधैः सुरैवीज्यमानम् । ध्वनदुन्दुमिध्वा निर्घोषरम्यं चलद्वीचिवलं पयोधि यथैव ॥९॥ सुरोन्मुक्तपुष्पैस्ततप्रान्तदेशं महाशोकवृक्षाश्रितोत्तुङ्गमूर्तिम् । स्वकल्पद्रुमोचानमुक्तप्रसूनस्ततान्तं सुरादि रुचा हेपयन्तम् ॥१७॥
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नष्ट करनेवाले जिनेन्द्रभगवानके दर्शनोंकी इच्छासे बड़ी भारी विभूतिपूर्वक उत्तम-उत्तम देवोंके साथ-साथ भीतर प्रविष्ट हुआ ।।९।। ___अथानन्तर-जो ऊँची और देदीप्यमान पीठिकाके ऊपर विराजमान थे, देवोंके भी देव थे, चारों ओर दीखनेवाले चार मुखोंकी शोभासे सहित थे, सुरेन्द्र नरेन्द्र और मुनीन्द्रोंके द्वारा बन्दनीय थे, *जगत्को सृष्टि और संहारके मुख्य कारण थे। जिनका मुल शरऋतुके चन्द्रमाके साथ स्पर्धा कर रहा था, जो शरदऋतुकी चाँदनीके समान अपनी कान्तिसे अतिशय शोभायमान थे, जिनके नेत्र नवीन फूले हुए नील कमलोंके समान सुशोभित थे और उनके कारण जो सफेद तथा नील-कमलोंसे सहित सरोवरको हँसी करते हुए-से जान पड़ते थे। जिनका शरीर अतिशय प्रकाशमान और देदीप्यमान था, जो चमकते हए सूर्यमण्डलके साथ स्पर्धा करनेवाली अपने शरीरकी प्रभारूपी समुद्रमें निमग्न हो रहे थे, जिनका शरीर अतिशय ऊँचा था,जो देवोंके द्वारा आराधना करने योग्य थे, सुवर्ण-जैसी उज्ज्वल कान्तिके धारण करनेवाले थे और इसीलिए जो महामेरुके समान जान पड़ते थे। जो अपने विशाल वक्षःस्थलपर स्थित रहनेवाली अनन्तचतुष्टयरूपी आत्मलक्ष्मीसे शब्दोंके बिना ही तीनों लोकोंके स्वामित्वको प्रकट कर रहे थे, जो कवळाहारसे रहित थे, जिन्होंने सब आभूषण दूर कर दिये थे, जो इन्द्रिय ज्ञानसे रहित थे, जिन्होंने ज्ञानावरण आदि कोको नष्ट कर दिया था। जो सूर्यके समान देदीप्यमान रहनेवाली प्रमाके मध्यमें विराजमान थे, देवलोग जिनपर अनेक चमरोंके समूह दुरा रहे थे, बजते हुए दुन्दुभिवाजोंके शब्दोंसे जो अतिशय मनोहर थे और इसीलिए जो शब्द करती हुई अनेक लहरोंसे युक्त समुद्रकी वेला (तट) के समान जान पड़ते थे। जिनके समीपका प्रदेश देवोंके द्वारा वर्षाये हुए फूलोंसे व्याप्त हो रहा था, जिनका ऊँचा शरीर बड़े भारी अशोकवृक्षके आश्रित था-उसके नीचे स्थित था और इसीलिए जिसका समीप प्रदेश अपने कल्पवृक्षोंके उपवनों-द्वारा छोड़े हुए फूलोंसे व्याप्त हो रहा है ऐसे सुमेरु पर्वतको अपनी कान्तिके द्वारा लजित कर रहे थे। और जो चमकते हुए
१. वर्णाश्रमादिकारणदण्डनीत्यादिविध्योः। २. प्रतिस्पदि। ३. जगत्पतित्वम् । ४. वस्त्रादिरहिता. कारम् । जातरूपधरमित्यर्थः । ५. अतीन्द्रियज्ञानम् । १. निरस्तज्ञानावरणादिकम् ।। ७. प्रभामण्डल । ८. दिव्यध्वनि ।
* मोक्षमार्गरूपी सृष्टिको उत्पन्न करनेवाले और पापरूपी सृष्टिको संहार करनेवाले थे।