Book Title: Adi Puran Part 1
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 641
________________ ५५१ त्रयोविंशं पर्व 'वृत्तावृत्तम् बहुविधव'नलतिकाकान्तं मदमधुकरविरुतातोयम् । वनमुपवहति च वल्लीनां स्मितमिव कुसुमचितं या स्म ॥१॥ सैनिकावृत्तम् सालमाद्यमुच्चगोपुरोद्गम संविमति मासुरं स्म हैमनम् । हेमनार्कसौम्यदीप्तिमुन्नतिं भर्तुरभरविनैव या प्रदर्शिका ॥८२॥ छन्दः (१) शरद्घनसमश्रियो नर्तकी तडिद्विलसिते नृतेः शालिके। दधाति रुचिरे स्म योपासितुं जिनेन्द्रमिव 'भक्तिसंमाविता ॥८॥ वंशस्थवृत्तम् *घटीद्वन्द्वमुपात्तधूपकं बभार या द्विस्तनयुग्मसनि भम् । जिनस्य भृत्यै श्रुतदेवता स्वयं तथा स्थितेव' त्रिजगछिया समम् ॥४॥ इन्द्रवंशावृत्तम् रम्ब बन भृगसमूहसेवितं बने चतुः"संख्यमुपातकान्तिकम् । चासो विनीलं परिधाय"तविभाद् "वरेण्यमाराधयितुं स्थितेव या ४५॥ शब्दोंके बहाने भगवानकी सेवा करनेके लिए इन्द्रोंको ही बुलाना चाहती हो ॥४०॥ वह भूमि अनेक प्रकारको नवीन लताओंसे सुशोभित, मदोन्मत्त भ्रमरोंके मधुर शब्दरूपी बाजोंसे सहित तथा फूलोंसे व्याप्त लताओंके वन धारण कर रही थी और उनसे ऐसी जान पड़ती थी मानो मन्द-मन्द हँस ही रही हो ।।८१।। वह भूमि ऊँचे-ऊँचे गोपुर-द्वारोंसे सहित देदीप्यमान सुवर्णमय पहले कोटको धारण कर रही थी और उससे ऐसी जान पड़ती थी मानो भ वृषभदेवकी हेमन्तऋतुके सूर्यके समान अतिशय सौम्य दीप्ति और उन्नतिको अक्षरोंके बिना ही दिखला रही हो ॥२॥ वह समवसरणभूमि प्रत्येक महावीथीके दोनों ओर शरदऋतुके बादलोंके समान स्वच्छ और नृत्य करनेवाली देवांगनाओंरूपी बिजलियोंसे सुशोभित दो-दो मनोहर नृत्यशालाएँ धारण कर रही थी और उनसे ऐसी जान पड़ती थी मानो भक्तिपर्वक जिनेन्द्र भगवानकी उपासना करनेके लिए ही उन्हें धारण कर रही हो । वह भूमि नाटयशालाओंके आगे दो-दो धूपघट धारण कर रही थी और उनसे ऐसी जान पड़ती थी मानो जिनेन्द्र भगवान्को सेवाके लिए तीनों लोकोंकी लक्ष्मीके साथ-साथ सरस्वती देवी ही वहाँ बैठी हों और वे घट उन्हींके स्तनयुगल हो ॥४॥ वह भूमि भ्रमरों के समूहसे सेवित और उत्तम कान्तिको धारण करनेवाले चार सुन्दर वन भी धारण कर रही और उनसे ऐसी जान पड़ती थी मानो उन वनोंके बहानेसे नील वस्त्र पहनकर भगवान १. नवलतिका ल•। २. हेमनिर्मितम् । ३. हेमन्तजातार्करम्य । ४. नत्यस्य । ५. समवसतिः । ६. भक्तिसंस्कृता । ७. धूपघटीयुगलम् । चतुर्थमिति । ८. धूमकम्, इत्यपि पाठः । ९. स्तनयुग्मद्वयसमानम् । १०. समवसृत्याकारेण स्थितेव। ११. अशोकसप्तच्छदकल्पवृक्षचूतमिति । १२. वस्त्रम् । १३. परिषानं विधाय । १४. वनव्याजात् । १५. सर्वज्ञम् ।

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