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पादिपुराणम्
वातोमिवृत्तम् देवः साक्षात्सकलं वस्तुतस्वं विद्वान् विद्वज्जनतावन्दिताधिः । हैमं पीठ हरिमित्तिवस्त्रलं भेजे जगतां बोधनाय ॥७५॥
भ्रमरविलसितम् दृष्ट्वा देवाः समवसृतिमहीं चक्रुभक्त्या परिगतिमुचिताम् । त्रिः संभ्रान्ताः प्रमुदितमनसो देवं द्रष्टुं विविशुरथ समान ॥७॥
रथोडतावृत्तम् व्योममार्गपरिरोधिकतनैः संमिमाजिघुमिवाखिलं नमः । धूलिसालवलयेन वेष्टितां सन्त तामरधनुर्वृतामिव ॥७॥ स्तम्मशब्द परमानवाग्मितान् या स्म धारयति खानलधिनः । स्वर्गलोकमिव सेवितुं विभुं ग्याजुहूपुरमलाग्रकेतुमिः ॥७॥
स्वागतावृत्तम् स्वच्छवारिशिशिराः सरसीश्च या विमर्विकसितोपलनेत्राः । बटुमीशमसुरान्तकमुच्चैनेंत्रपतिमिव संघटयन्ती ॥७९॥ खातिका जलविहाविराबैलाश्च विततोर्मिकरोधः।
या दधे जिनमुपासितुमिन्द्रान् आजुहषुरिव निर्मलतोयाम् ॥८॥ उस समवसरण भूमिमें विराजमान हुए थे॥७४॥जो समस्त पदार्थोंको प्रत्यक्ष जानते हैं और अनेक विद्वान लोग जिनके चरणोंकी वन्दना करते हैं ऐसे वे भगवान् वृषभदेव जगत्के जीवोंको उपदेश देनेके लिए मुँह फाड़े सिंहोंके द्वारा धारण किये हुए सुवर्णमय सिंहासन पर अधिरूढ़ हुए थे ।।७५।। इस प्रकार समवसरण भूमिको देखकर देव लोग बहुत ही प्रसन्नचित्त हुए, उन्होंने भक्तिपूर्वक तीन बार चारों ओर फिरकर उचित रीतिसे प्रदक्षिणाएँ दीं
और फिर भगवान्के दर्शन करनेके लिए उस सभाके भीतर प्रवेश किया ||७६॥ जो कि आकाशमार्गको उल्लंघन करनेवाली पताकाओंसे ऐसी जान पड़ती थी मानो समस्त आकाशको झाड़कर साफ हो करना चाहती हो और धूलीसालके घेरेसे घिरी होनेके कारण ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो निरन्तर इन्द्रधनुषसे ही घिरी रहती हो ॥७७॥ वह सभा आकाशके अग्रभागको भी उल्लंघन करनेवाले चार मानस्तम्भोंको धारण कर रही थी तथा उन मानस्तम्भोंपर लगी हुई निर्मल पताकाओंसे ऐसी जान पड़ती थी मानो भगवान्की सेवा करनेके लिए स्वर्गलोकको ही बुलाना चाहती हो ॥७८। वह सभा स्वच्छ तथा शीतल जलसे भरी हुई तथा नेत्रोंके समान प्रफुल्लित कमलोंसे युक्त अनेक सरोवरियोंको धारण किये हुए थी और उनसे वह ऐसी जान पड़ती थी मानो जन्म जरा मरणरूपी असुरोंका अन्त करनेवाले भगवान् वृषभदेवका दर्शन करने के लिए नेत्रोंको पंक्तियाँ ही धारण कर रही हो ॥७९॥ वह समवसरण भूमि निर्मल जलसे भरी हुई, जलपक्षियोंके शब्दोंके शब्दायमान तथा ऊँची उठती हुई बड़ी-बड़ी लहरोंके समूहसे युक्त परिखाको धारण कर रही थी और उससे ऐसी जान पड़ती थी मानो लहरोंके समूहरूपी हाथ ऊँचे उठाकर जलपक्षियोंके
१. विस्तृत । २. परिचर्याम् । ३. त्रिः प्रदक्षिणं कृतवन्तः। ४. सम्माष्टुमिच्छुम् । ५. विस्तृताम् । ६. मानस्तम्भानित्यर्थः । ७. आहवातुमिच्छुः । ८. बिति स्म। ९. असून प्राणान् रात्यादत्त इत्यसुरः यमः तस्यान्तकस्तम् ।