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आदिपुराणम् ध्वनिरम्बुमुचा किमयं स्फुरति क्षुमितोऽधिरुतस्फुरदूमिरवः । कृततर्कमिति प्रसरन् जयतात् सुरतूर्यरवो जिनमतु रसौ ॥६॥ प्रमया परितो जिनदेहभुवा जगती सकला समवादिस्तेः । रुरुचे ससुरासुरमयजनाः किमिवाद्भुतमीडशि भान्नि विभोः ॥१५॥ तरुणार्करुचिं नुतिरोदधति सुरकोटिमहांसि नु नि नतो।' जगदेकमहोदयमासृजति प्रथते स्म तदा जिनदेहरुचिः-६॥ जिनदेहरुचावमृताधिशुचौ सुरदानवमर्त्यजना दाशुः । स्वभवान्तरसप्तकमात्तमुदो जगतो बहु मङ्गलदर्पणके ॥६॥ विधुमाशु विलोक्य नु विश्वसृजो गतमातपवारणतां त्रितयीम् । रविरिख वपुः स पुराणकविं समशिश्रियदविभानिमतः ॥१८॥
यही कह रहे हों कि अरे दुष्टो, तुम लोग जोर-जोरसे क्यों मार रहे हो ॥६३।। क्या यह मेघोंकी गर्जना है ? अथवा जिसमें उठती हुई लहरें शब्द कर रही हैं ऐसा समुद्र ही झोभको प्राप्त हुआ है ? इस प्रकार तर्क-वितर्क कर चारों ओर फैलता हुआ भगवानके देवदुन्दुभियोंका शब्द सदा जयवन्त रहे ॥६४॥ सुर, असुर और मनुष्योंसे भरी हुई वह समवसरणकी समस्त भूमि जिनेन्द्रभगवानके शरीरसे उत्पन्न हुई तथा चारों ओर फैली हुई प्रभा अर्थात् भामण्डलसे बहुत ही सुशोभित हो रही थी सो ठीक ही है क्योंकि भगवान्के ऐसे तेजमें आश्चर्य ही क्या है ।।६।। उस समय वह जिनेन्द्रभगवानके शरीरकी प्रभा मध्याह्नके सूर्यको प्रभाको तिरोहित करती हुई-अपने प्रकाशमें उसका प्रकाश छिपाती हुई, करोड़ों देवोंके तेजको दूर हटाती हुई, और लोकमें भगवानका बड़ा भारी ऐश्वर्य प्रकट करती हुई चारों ओर फैल रही थी ॥६६॥ अमृत के समुद्रके समान निर्मल और जगत्को अनेक मंगल करनेवाले दर्पणके समान, भगवानके शरीरकी उस प्रभा (प्रभामंडल) में सुर, असुर और मनुष्य लोग प्रसन्न होकर अपने सात-सात भव देखते थे॥६७।। 'चन्द्रमा शीघ्र ही भगवान्के छत्रत्रयकी अवस्थाको प्राप्त हो गया है' यह देखकर ही मानो अतिशय देदीप्यमान सूर्य भगवानके शरीरकी प्रभाके छलसे पुराण कवि भगवान् वृषभदेवकी सेवा करने लगा था। भावार्थ-भगवान्का छत्रत्रय
१. जिनदेहजनितया । २. समवसरणस्य । समवसरणस्तोत्रे समवसरणभूमीनामेकादशानां विस्तारो यथाक्रम 'स्वस्वचतुर्विशांशो द्वयोश्चतुर्षु द्विताडिताधं च । अदं त्रित्रिद्वयष्टमभागाः पञ्चसु तथा परेझै च ॥ स्वशब्देनात्र वृषभादितीर्थकराणां समवसरणभूमयो भण्यन्ते । तच्चतुर्विशतिभागे । ह्रासादिचैतन्यभूमिकः । भातिकयोः वल्लीवनादिषु चतुर्पु चतुर्विंशभाग एवं द्विगुणं तदर्द भवनभूमिविस्तारः। भवनभूमिविस्तारादद्ध गणभूमिविस्तारः । तस्त्रियाटमभागो द्वयोस्तथान्ये । गणभूमिविस्तार अष्टमभागो द्वयोः पीठयोः प्रत्येकं विस्तारः। गणभूमिद्वयष्टमभागः । अन्त्यपीठार्धपर्यन्तं विस्तारः। आदितीर्थंकरापेक्षया एकादशभूमीनां विस्ताराः क्रमेण लिख्यन्ते । योजनं ३ खा-शिव-१-उप-१ ध्वज-१ कल्प-१ भवमभू ३ गुण ४ पीठदण्डाः । ३. रुरुधे रुरुचे इति 'प' पुस्तके द्विविधः पाठः । ४. सुरासुरमर्त्यजनः सहिताः । ५. नु वितर्के । ६. तेजांसि । ७. महोमय । अद्वितीयतेजोमयम् । ८. मलदर्पणसदशे । ९. दीप्त-। १०. देहप्रभाब्याजात् ।