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आदिपुराणम्
पुटवृत्तम् उपवनसरसीनां बालपमैथुयुवतिमुखशोभामाहसन्ती। अश्त च वनवेदी रत्नदीप्रां युवतिरिव कटीस्था मेखला या ॥८६॥
जलोद्धतगतवृत्तम् ध्वजाम्बरतताम्बरैः परिगता यका ध्वजनिवेश नैर्दशतयैः । जिनस्य महिमानमारचयितुं नमोङ्गणमिवामू जत्यतिबभौ ॥८॥ खमिव सतारं कुसुमाढयं या वनमतिरम्यं सुरभूजानाम् । सह वनवेद्या परत: सालाद् न्यरुचदिचोदवा सुकृतारामम् ॥८८॥ अमृत च यस्मात्परतो दीघ्रं स्फुरदुरुरत्नं भवनाभोगम् । मणिमयदेहान्नव च स्तूपान् भुवनविजित्यायिव बद्धेच्छा ॥८९॥ स्फटिकमयं या रुचिरं सालं प्रवितनमूर्तिः 'खमणिसुमित्तीः । उपरितलं च त्रिजगद्ग्राहि व्यस्त पराध्य सदनं कक्ष्याः ॥१०॥
भुजङ्गप्रयातवृत्तम् समं "देववयः परार्थोरुशोमा प्रपश्यंस्तथैनां महीं विस्मिताभः । प्रविष्टो महेन्द्रः प्रणष्टप्रमोहं जिनं द्रष्टुकामो महत्या विभूत्या ॥११॥
की आराधना करनेके लिए ही खड़ी हो ॥८५|| जिस प्रकार कोई तरुण स्त्री अपने कटि भागपर करधनी धारण करती है उसी प्रकार उपवनकी सरोवरियोंमें फूले हुए छोटे-छोटे कमलोंसे स्वर्गरूपी स्त्रीके मुखकी शोभाकी ओर हँसती हुई वह समवसरण भूमि रत्नोंसे देदीप्यमान वनवेदिकाको धारण कर रही थी ।।८६॥ ध्वजाओंके वस्त्रोंसे आकाशको व्याप्त करनेवाली दस प्रकारकी ध्वजाओंसे सहित वह भूमि ऐसी अच्छी सुशोभित हो रही थी मानो जिनेन्द्र भगवान्को महिमा रचनेके लिए आकाशरूपी आँगनको साफ ही कर रही हो।।८७॥ ध्वजाओंकी भूमिके बाद द्वितीयकोट के चारों ओर वनवेदिका सहित कल्पवृक्षोंका अत्यन्त मनोहर वन था, वह फूलोंसे सहित था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो ताराओं से सहित आकाश ही हो। इस प्रकार पुण्यके बगीचेके समान उस वनको धारण कर वह समवसरणभूमि बहुत ही सुशोभित हो रही थी ॥८८। उस वनके आगे वह भूमि, जिसमें अनेक प्रकारके चमकते हुए बड़े-बड़े रत्न लगे हुए हैं ऐसे देदीप्यमान मकानोंको तथा मणियोंसे बने हए नौ-नौ स्तूपोंको धारण कर रही थी और उससे वह ऐसी जान पड़ती थी मा जगत्को जीतनेके लिए ही उसने इच्छा की हो ।।८।। उसके आगे वह भूमि स्फटिक मणिके बने हुए सुन्दर कोटको, अतिशय विस्तारवाली आकाशस्फटिकमणिकी बनी हुई दीवालों को और उन दीवालोंके ऊपर बने हुए, तथा तीनों लोकोंके लिए अवकाश देने वाले अतिशय श्रेष्ठ श्रीमण्डपको धारण कर रही थी। ऐसी समवसरण सभाके भीतर इन्द्रने प्रवेश किया था* ॥९०॥ इस प्रकार अतिशय उत्कृष्ट शोभाको धारण करनेवाली उस समवसरण भुमिको देखकर जिसके नेत्र विस्मयको प्राप्त हुए हैं ऐसा वह सौधर्म स्वर्गका इन्द्र मोहनीय कर्मको
१. ईषद्विकचकमलपद्मः । २. परिवृता । ३. या। ४. रचनाभिः । ध्वजस्थानैर्वा । ५. दशप्रकारैः । ६. सम्मार्जनं कुर्वति । ७. भवनभूमिविस्तारम् । प्रासादविस्तारमित्यर्थः । ८. भुवनविजयाय । ९. आकाशस्फटिक। १०. स्फटिकमित्युपरिमभागे लक्ष्म्याः सदनं लक्ष्मीमण्डपमित्यर्थः। ११. ईशानादीन्द्रः । महर्दिकदेवश्च ।
* इन सब श्लोकोंका क्रिया सम्बन्ध पिठले छिहत्तरवें श्लोकसे है।