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त्रयोविंशं पर्व योत्तुङ्ग शिखरैर्ववजयकेतनकोटिसिः । भुजशाखाः प्रसार्येव नभोगानाजुहूषत ॥ त्रिमिस्तलेल्पेताया भुवनत्रितयश्रियः । प्रतिमेव बभौ 'म्योमसरोमध्येऽम्बुबिम्बता ॥१२॥ स्थूलमुक्कामयै र्जाललम्बमानैः समन्ततः। महाधिमिरिवानीतैर्योपायनशतैरभात् ॥१॥ हैमैर्जालः क्वचित् स्थूलेरायतैर्या विदियते । कानिपोजवै दीप्रेः प्रारोह रिव लम्बितैः ॥१४॥ रस्नाभरणमाळामिर्लम्बितामिरितोऽमुतः । या बभौ स्वर्गलक्षण्येव प्रहितोपायनर्दिमिः ॥१५॥ नग्मिराकृष्टगन्धान्धमाचन्मधुपकोटिमिः । जिनेन्द्र मिव तुष्टषुरमाद् या मुखरीकृता ॥१६॥ स्तुवस्सुरेन्द्रसंधगचपद्यस्तवस्वनैः । सरस्वतीव माति स्म या विभुं स्तोतुमुखता ॥१७॥ रखालोकैर्विसर्पनिर्या वृत्ताजी ज्यराजत । जिनेन्द्राप्रमालक्ष्म्या घटितेव महायुतिः ॥१८॥ या प्रोत्सर्पनिराहतमदालिकुलसंकुलैः । धूपैर्दिशामिवायाम प्रमि रसुस्वतधूमकैः ॥१९॥ गन्धगन्धमयीवासीत् सृष्टिः पुष्पमयीव च । पुष्पै—पमयीवाभाद् भूपैर्या दिग्विसर्पिभिः ॥२०॥ सुगन्धिपनिःश्वासा सुमनोमालमारिणी । नानामरणदीप्ताजी या वधूरिव दियुते ॥२॥
हो रहा हो ॥ १०॥ जिनपर करोड़ों विजयपताकाएँ बँधी हुई हैं ऐसे ऊँचे शिखरोंसे वह गन्धकुटी ऐसी जान पड़ती थी मानो अपने हाथोंको फैलाकर देव और विद्याधरोंको ही बुला रही हो॥१शा तीनों पीठोंसहित वह गन्धकटी ऐसी जान पडती थी मानो आकाशरूपी सरोवरके मध्यभागमें जलमें प्रतिबिम्बित हुई तीनों लोकोंकी लक्ष्मीकी प्रतिमा ही हो ॥१२॥ चारों ओर लटकते हुए बड़े-बड़े मोतियोंको सागरसे बह गन्धकुटी ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो बड़े-बड़े समुद्रोंने उसे मोतियोंके सैकड़ों उपहार ही समर्पित किये हों॥१३।। कहींकहींपर वह गन्धकुटी सुवर्णकी बनी हुई मोटी और लम्बी जालीसे ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो कल्पवृक्षोंसे उत्पन्न होनेवाले लटकते हुए देदीप्यमान अंकुरोंसे ही सुशोभित हो रही हो ॥१४॥जो स्वर्गकी लक्ष्मीके द्वारा भेजे हुए उपहारोंके समान जान पड़ती थी ऐसी चारों ओर लटकती हुई रत्नमय आभरणोंकी मालासे वह गन्धकुटी बहुत ही अधिक शोभायमान हो रही थी ॥१५।। वह गन्धकुटी पुष्पमालाओंसे खिंचकर आये हुए गन्धसे अन्धे करोड़ों मदोन्मत्त भ्रमरोंसे शब्दायमान हो रही थी और ऐसी जान पड़ती थी मानो जिनेन्द्र भगवान्की स्तुति ही करना चाहती हो ॥२६॥ स्तुति करते हुए इन्द्रके द्वारा रचे हुए गय-पद्यरूप स्वोत्रोंकेशलोंसे शब्दायमान हुई वह गन्धकुटी ऐसी जान पड़ती थी मानो भगवान्का स्तवन करने के लिए उद्यत हुई सरस्वती हो ॥१७॥ चारों ओर फैलते हुए रनोंके प्रकाशसे जिसके समस्त अंग ढके हुए हैं ऐसी बह देदीप्यमान गन्धकुटी ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो जिनेन्द्र भगवानके शरीरको लक्ष्मीसे ही बनी हो ॥१८॥ जो अपनी सुगन्धिसे बुलाये हुए मदोन्मत्त भ्रमरों के समूहसे च्यात हो रहा है और जिसका धुआँ चारों ओर फैल रहा है ऐसी सुगन्धित धूपसे वह गन्धकुटी ऐसी जान पड़ती थी मानो दिशाओंकी लम्बाई ही नापना चाहती हो ॥१९॥ सब दिशाओं में फैलती हुई सुगन्धिसे वह गन्धकुटी ऐसी जान पड़ती थी मानो सुगन्धिसे ही बनी हो, सब दिशाओंमें फैले हुए फूलोसे ऐसी मालूम होती थी मानो फूलोंसे ही बनी हो और सब दिशाओं में फैलते हुए धूपसे ऐसी प्रतिभासित हो रही थी मानो धूपसे ही बनी हो ॥२०॥ अथवा वह गन्धकुटी स्त्रीके समान सुशोभित हो रही थी क्योंकि जिस प्रकार स्त्रीका निश्वास सुगन्धित होता है उसी प्रकार उस गन्धकुटीमें जो धूपसे सुगन्धित वायु बह रहा था वही उसके सुगन्धित निश्वासके समान था। सो जिस प्रकार
4. बाह्वयन्ति स्म । २. आकाशसरोवरजलमध्ये । ३. दामभिरित्यर्थः । ४. दीप्तःल., ५०,०। ५. शिफाभिः । ६. प्रेषित । ७. स्तोतुमिच्छुः । ८. रचित । ९. प्रमातुमिच्छः ।