________________
५३९
द्वाविंशं पर्व समममरनिकायैरेत्य दूरात् प्रणम्रः
. समवसरणभूमि पिप्रिये प्रेक्षमाणः ॥३१५॥ किमयममरसर्गः' किं नु जैनानुभावः
किमुत नियतिरेषा किं स्विदैन्द्रः प्रभावः । इति विततवितः कौतुकाद् वीक्ष्यमाणा
- जयति सुरसमाजैर्मर्तुरास्थानभूमिः ॥३१६॥
इत्याचे भगवजिनसेनाचार्यप्रणीते त्रिषष्टिलक्षणमहापुराणसंग्रहे
भगवत्समवसरणवर्णनं नाम द्वाविंश पर्व ॥२२॥
धारण करनेवाला इन्द्र चारों निकायोंके देवोंके साथ आकर दूरसे ही नम्रीभूत हुआ था और समवसरण भूमिको देखता हुआ अतिशय प्रसन्न हुआ था ऐसे श्री जिनेन्द्रदेव सदा जयवन्त रहें ॥३१५।। क्या यह देवलोककी नयी सृष्टि है ? अथवा यह जिनेन्द्र भगवान्का प्रभाव है, अथवा ऐसा नियोग ही है, अथवा यह इन्द्रका ही प्रभाव है। इस प्रकार अनेक तर्क-वितर्क करते हुए देवोंके समूह जिसे बड़े कौतुकके साथ देखते थे ऐसी वह भगवान्की समवसरण भूमि सदा जयवन्त रहे ॥३१६॥
इस प्रकार आर्षनामसे प्रसिद्ध भगवजिनसेनाचार्य प्रणीत त्रिषष्टिलक्षण महापुराणके संग्रहमें
समवसरणका वर्णन करनेवाला बाईसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥२२॥
१. सुष्टिः । २. जैनोनुभाव: ५०, अ०, २०, इ० । अनुभावः सामर्थ्यम् ।३. उत् ।