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त्रयोविंशं पर्व
भय त्रिमेखलस्यास्य मूनि पीठस्य विस्तृते । स्फुरन्मबिविभाजासरचितामरकामुके ॥१॥ सुरेन्द्रकरविक्षिप्तपुष्पप्रकरशोमिनि ।'हसतीव धनापायस्कुटचारकमम्बरम् ॥२॥ चलच्चामरसंघातप्रतिबिम्बनिमागतः । सैरिव सरोबुबया सेग्यमानत पृथौ ॥३॥ मार्तण्डमण्डलच्छायाप्रस्पर्धिनि महर्दिके । स्वधुनीफेननीकाशः स्फटिकैघटिते क्वचित् ॥४॥ पद्मरागसमुत्सर्पन्मयूखैः कचिदास्तृते । जिनपादतलछायाशोणिम्ने वानुरजिते ॥५॥ शुचौ स्निग्धे मृदुस्पर्श जिनाघिस्पर्शपावने । पर्यन्तरचितानेकमङ्गलद्न्यसंपदि ॥६॥ तत्र गन्धकुटी पृथ्वीं तुङ्गशालोपशोमिनीम् । राई निवेशयामास स्वर्विमानातिशायिनीम् ॥७॥ त्रिमेखलाङ्कित पीठे सैषा गन्धकुटी बमौ । नन्दनादि वनश्रेणीत्रयाद वोपरि चूलिका ॥८॥ यथा सर्वार्थसिद्धिर्वा स्थिता त्रिदिवमूर्धनि । तथा गन्धकुटी दीपा" पीठस्याधितल बमौ ॥९॥ नानारत्नप्रमोत्सर्यस्कूटैस्ततमम्बरम् । सचित्रमिव माति स्म सेन्द्रचापमिवाथवा ॥१०॥
अथानन्तर-जो देदीप्यमान मणियोंकी कान्तिके समूहसे अनेक इन्द्रधनुषोंकी रचना कर रहा है, जो स्वयं इन्द्र के हाथोंसे फैलाये हुए पुष्पोंके समूहसे सुशोभित हो रहा था और उससे जो ऐसा जान पड़ता है मानो मेघोंके नष्ट हो जानेसे जिसमें तारागण चमक रहे हैं. ऐसे शरऋतुके आकाशकी ओर हँस ही रहा हो; जिसपर दुरते हुए चमरों के समूहसे प्रतिबिम्ब पड़ रहे थे और उनसे जो ऐसा जान पड़ता था मानो उसे सरोवर समझकर हंस ही उसके बड़े भारी तलभागकी सेवा कर रहे हाँ; जो अपनी कान्तिसे सूर्यमण्डलके साथ स्पर्द्धा कर रहा था; बड़ी-बड़ी ऋद्धियोंसे युक्त था, और कहीं-कहींपर आकाश-गंगाके फेनके समान स्फटिकमणियोंसे जड़ा हुआ था; जो कहीं-कहींपर पद्मरागकी फैलती हुई किरणोंसे व्याप्त हो रहा था और उससे ऐसा जान पडता था मानो जिनेन्द्र भगवानकं चरणतलको लाल-लाल कान्तिसे ही अनुरक्त हो रहा हो; जो अतिशय पवित्र था, चिकना था, कोमल स्पर्शसे सहित था, जिनेन्द्र भगवानके चरणोंके स्पर्शसे पवित्र था और जिसके समीपमें अनेक मंगलद्रव्यरूपी सम्पदाएँ रखी हुई थीं ऐसे उस तीन कटनीदार तीसरे पीठके विस्तृत मस्तक अर्थात् अग्रभागपर कुबेरने गन्धकुटी बनायी। वह गन्धकुटी बहुत ही विस्तृत थी, ऊँचे कोटसे शोभायमान थी
और अपनी शोभासे स्वर्गके विमानोंका भी उल्लंघन कर रही थी॥१-७|| तीन कट नियोंसे चिह्नित पीठपर वह गन्धकुटी ऐसी सुशोभित हो रही था मानो नन्दन वन, सौमनस वन और पाण्डुक वन इन तीन वनोंके ऊपर सुमेरु पर्वतकी चूलिका ही सुशोभित होरही हो ॥८॥ अथवा जिस प्रकार स्वर्गलोकके ऊपर स्थित हुई सर्वार्थसिद्धि सुशोभित होती है उसी प्रकार उस पीठके ऊपर स्थित हुई वह अतिशय देदीप्यमान गन्धकुटी सुशोभित हो रही थी ।।।। अनेक प्रकारके रत्नोंकी कान्तिको फैलानेवाले उस गन्धकुटीके शिखरोंसे व्याप्त हुआ आकाश ऐसा जान पड़ता था मानो- अनेक चित्रोंसे सहित ही हो रहा हो अथवा इन्द्रधनुषोंसे युक्त ही
१. हसतीति हसन् तस्मिन् । २. -स्फुरत्तारक -ल०, म० । ३. व्याजादागतः । ४. -तले ल०, ६०, द०, स०, म०, अ०, प० । ५. आतते । ६. अरुणत्वेन । ७. पीवराम् । ८. धनदः । ९. नन्दनसौमनसपाण्डुकबनश्रेणित्रयात् । १०. इव । ११. दीप्ता १०, द.ल.। १२. उपरि तले।