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आदिपुराणम् खगेन्द्ररुपसेव्यत्वात्तुङ्गस्वादचलस्वतः । रूप्याद्विरिव तादप्यमापसः पर्यगाद् विभुम् ॥२७२॥ दिक्षु सालोत्तमस्यास्य गोपुराण्युदशिश्रियन् । पथरागमयान्युश्चमध्यरागमयानि वा ॥२७३॥ ज्ञेयाः पूर्ववदत्रापि मङ्गलद्रव्यसंपदः । द्वारोपान्ते च निधयो ज्वलद्गम्भीरमूर्तयः ॥२७॥ सतालमङ्गलच्छत्रचामरध्वजदर्पणाः । सुप्रतिष्ठकभृङ्गारकलशाः प्रतिगोपुरम् ॥२७५॥ गदादिपाणयस्तेषु गोपुरेष्वमवन् सुराः । क्रमात् सालनये द्वाास्था भौम भावनकल्पजाः ॥२७६॥ ततः खस्फाटिकात् सालादापीठान्तं समायताः। मित्तयः षोडशाभूवन् महावीथ्यन्तराश्रिताः ॥२७७॥ नमःस्फटिकनिर्माणः प्रसरनिर्मलस्विषः । सायपीठतटालग्ना ज्योत्स्नायन्ते स्म भित्तयः ॥२७॥ शुचयो दर्शिताशेषवस्तुबिम्बा महोदयाः । भित्तयस्ता जगद्भर्तुरधिविद्या' इवावभुः ॥२७९॥ तासामुपरि विस्तीर्णो रत्नस्तम्भैः समुदतः । वियत्स्फटिकनिर्माणः संश्रीः श्रीमण्डपोऽभवत् ॥२८०॥
सत्यं श्रीमण्डपः सोऽयं यत्रासौ परमेश्वरः । नृसुरासुरसान्निध्ये स्वीचक्रे त्रिजगच्छियम् ॥२८॥ ( पक्षमें सदाचारी ) था ।।२७१॥ अथवा वह कोट बड़े-बड़े विद्याधरोंके द्वारा सेवनीय था, ऊँचा था, और अचल था इसलिए ऐसा जान पड़ता था मानो विजयाध पर्वत ही कोटका रूप धारण कर भगवान्की प्रदक्षिणा दे रहा हो ॥२७२।। उस उत्तम कोटकी चारों दिशाओंमें चार ऊँचे गोपुर-द्वार थे जो पद्मरागमणिके बने हुए थे, और ऐसे मालूम पड़ते थे मानो भव्य जीवोंके अनुरागसे ही बने हों ।। २७३ ।। जिस प्रकार पहले कोटोंके गोपुर-द्वारोंपर मंगलद्रव्यरूपी सम्पदाएँ रखी हुई थीं उसी प्रकार इन गोपुर-द्वारांपर भी मंगलद्रव्यरूपी सम्पदाएँ जानना चाहिए। और पहलेकी तरह ही इन गोपुर-द्वारोंके समीपमें भी देदीप्यमान तथा गम्भीर आकारवाली निधियाँ रखी हुई थीं ।। २७४ ।। प्रत्येक गोपुर-द्वारपर पंखा, छत्र, चामर, ध्वजा, दर्पण, सुप्रतिष्ठक (ठौना), भृङ्गार और कलश ये आठ-आठ मङ्गल द्रव्य रखे हुए थे ।। २७५ ॥ तीनों कोटोंके गोपुर-द्वारोंपर क्रमसे गदा आदि हाथमें लिये हुए व्यन्तर भवनवासी और कल्पवासी देव द्वारपाल थे। भावार्थ-पहले कोटके दरवाजोपर व्यन्तर देव पहरा देते थे, दूसरे कोट के दरवाजोपर भवनवासी पहरा देते थे और तीसरे कोटके दरवाजोंपर कल्पवासी देव पहरा दे रहे थे। ये सभी देव अपने-अपने हाथोंमें गदा आदि हथियारोंको लिये हुए थे ।। २७६ ॥ तदनन्तर उस आकाशके समान स्वच्छ स्फटिकमणिके कोटसे लेकर पीठ पर्यन्त लम्बी और महावीथियों ( बड़े-बड़े रास्तों) के अन्तरालमें आश्रित सोलह दीवालें थीं। भावार्थ-चारों दिशाओंकी चारों महावीथियोंके अगल बगल दोनों ओर आठ दीवालें थीं और दो-दोके हिसाबसे चारों विदिशाओंमें भी आठ दीवालें थीं इस प्रकार सब मिलाकर सोलह दीवालें थीं। ये दीवाले स्फटिक कोटसे लेकर पीठ पर्यन्त लम्बी थों और बारह सभाओंका बिभाग कर रही थीं ।। २७७ ॥ जो आकाशस्फटिकसे बनी हुई हैं, जिनकी निर्मल कान्ति चारों ओर फैल रही है और जो प्रथम पीठके किनारे तक लगी हुई हैं ऐसी वे दीवाले चाँदनीके समान आचरण कर रहीं थीं ॥ २७८ ॥ वे दीवालें अतिशय पवित्र थीं, समस्त वस्तुओंके प्रतिबिम्ब दिखला रहीं थीं और बड़े भारी ऐश्वर्यके सहित थी इसलिए ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो जगत्के भर्ता भगवान् वृषभदेवकी श्रेष्ठ विद्याएँ हों ॥२७९ ॥ उन दीवालोंके ऊपर रत्नमय खम्भोंसे खड़ा हुआ और आकाशस्फटिकमणिका बना हुआ बहुत बड़ा भारी शोभायुक्त श्रीमण्डप बना हुआ था ।। २८० ॥ वह श्रीमण्डप वास्तवमें श्रीमण्डप था क्योंकि वहाँपर परमेश्वर भगवान् वृषभदेवने मनुष्य, देव और धरेणेन्द्रोंके समीप तीनों लोकोंको
१.प्रदक्षिणामकरोत् । २. इव । ३.द्वारपालकाः। ४.भौम-व्यन्तर । भावन-भवनवासी। ५.ज्ञानातिशयाः।