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द्वाविंश पर्व पोथीनां मध्यमागेऽत्र स्तूपा नव समुपयुः । पचरागमयोतुजवपुषः लाप्राधिनः ॥२३॥ जनानुरागास्वादप्यमापनाइते बभः । सिदाईप्रतिविम्बौरमितश्चित्रमूर्तयः ॥२६॥ स्वोचल्या गगनामोर्ग साधानाः स्म विभान्स्वमी। स्पा विद्याधसराध्याः प्राप्लेज्या मेरवो यथा ॥१५॥ स्तूपाः समुच्छिता रेडराराध्याः सिदचारणः । ताप्यमिव विधाणा नवकेवलम्धयः ॥२६॥ स्तूपानामन्तरेग्वेषां रखतोरणमालिकाः । बभुरिन्द्रधनुर्मस्य इव चित्रितलागणाः ॥२६७॥ सम्छत्राः सपताका सर्वमहासंभृताः। राजान इव रेजुस्ते स्वपाः कृतजनोत्सवाः ॥२६॥ तत्रामिषिच्य जैनेन्द्रीराः कीर्तितपूजिताः । ततः प्रदक्षिणीकृत्य मण्या मुदमयासिपुः ॥२६९॥ स्तूपहावलोलखा भुवमुकदम्य ता. ततः । नमःस्फटिकसालोऽभू जातं खमिव तन्मयम् ॥२७॥ . विशुद्धपरिणामस्वाजिनपर्यन्तसेवनात् । मन्यामेव बमौ सालस्तुसद्वृत्तताम्वितः ॥२७॥
नृत्य आदिकी गोष्टियों-द्वारा भगवानकी आराधना कर रहे थे ॥ २६२॥ महावीथियोंके मध्यभागमें नौ-नौ स्तूप खड़े हुए थे, जो कि पद्मरागमणियोंके बने हुए बहुत ऊँचे थे और अपने अग्रभागसे-आकाशका उल्लंघन कर रहे थे ।। २६३ ।।, सिद्ध और अर्हन्त भगवानकी प्रतिमाओंके समूहसे वे स्तूप चारों ओरसे चित्र-विचित्र हो रहे थे और ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो मनुष्योंका अनुराग ही स्तूपोंके आकारको प्राप्त हो गया हो. ॥२६४॥ वे स्तूप ठीक मेरु पर्वतके समान सुशोभित हो रहे थे क्योंकि जिस प्रकार मेरु पर्वत अपनी ऊँचाईसे आकाशको घेरे हुए है उसी प्रकार वे स्तूप भी अपनी ऊँचाईसे आकाशको घेरे हुए थे, जिस प्रकार मेरु पर्वत विद्याधरोंके द्वारा आराधना करने योग्य है उसी प्रकार वे स्तूप भी विद्याघरोंके द्वारा आराधना करने योग्य थे और जिस प्रकार सुमेरु पर्वत पूजाको प्राप्त है उसी प्रकार वे स्तूप भी पूजाको प्राप्त थे ।।२६५।। सिद्ध तथा चारण मुनियोंके द्वारा आराधना करने योग्य वे अतिशय ऊँचे स्तूप ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो स्तूपोंका आकार धारण करती हुई भगवान्की नौ केवललब्धियाँ ही हों ॥२६६।। उन स्तूपोंके बीचमें आकाशरूपी आँगनको चित्र-विचित्र करनेवाले रत्नोंके अनेक बन्दनवार बँधे हुए थे जो कि ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो इन्द्रधनुषके हो बँधे हुए हों ।।२६७।। उन स्तूपोंपर छत्र लगे हुए थे, पताकाएँ फहरा रही थीं, मंगलद्रव्य रखे हुए थे और इन सब कारणोंसे वे लोगोंको बहुत ही आनन्द उत्पन्न कर रहे थे इसलिए ठीक राजाओंके समान सुशोभित हो रहे थे क्योंकि राजा लोग भी छत्रपताका और सब प्रकारके मंगलोंसे सहित होते हैं तथा लोगोंको आनन्द उत्पन्न करते रहते. हैं ।। २६८ ।। उन स्तूपोंपर जो जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमाएँ विराजमान थीं भव्यलोग उनका अभिषेक कर उनकी स्तुति और पूजा करते थे तथा प्रदक्षिणा देकर बहुत ही हर्षको प्राप्त
होते थे ।२६९॥
उन स्तूपों और मकानोंकी पंक्तियोंसे घिरी हुई पृथ्वीको उल्लंघन कर उसके कुछ आगे आकाशके समान स्वच्छ स्फर्टिकमणिका बना हुआ कोट था जो कि ऐसा सुशोभित हो रहाथा मानो आकाश ही उस कोटरूप हो गया हो। २७० ॥ अथवा विशुद्ध परिणाम (परिणमन)होनेसे और जिनेन्द्र भगवान्के समीप ही सेवा करनेसे वह कोट भन्यजीवके समान सुशोभित हो रहा था क्योंकि भन्यजीव भी विशुद्ध परिणामों (भावों) का धारक होता है और जिनेन्द्र भगवान्के समीप रहकर ही उनकी सेवा करता है। इसके सिवाय बह कोट भन्य जीवके समान ही तुङ्ग अर्थात् ऊँचा ( पक्षमें श्रेष्ठ) और सद्वृत्त सर्थात् सुगोल
१. स्तूपस्वरूपवत्त्वम् । २. विस्तारम् । ३. चारणमुनिभिः, देवभेदैश्च । ४. इन्द्रधनुभिनिवृत्ताः। ५. कीर्तिताश्च पूजिताश्च । ६. प्राप्तवन्तः । ७. -सालोऽभाज्जातं ल०। ८. सालमयम् ।