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द्वाविंशपर्व
५३१ देवोदक्कुरवो नूनमागताः सवितुं जिनम् । दशप्रभेदैः सौः कल्पतरुमिः श्रेणि सास्कृतैः ॥२६॥ . फलान्यामरणान्येषामंशुकानि च पल्लवाः । बजः शाखाप्रलम्बिन्यो महाप्रारोहयष्टयः ॥२४॥ तेषामधास्थलच्छायामध्यासीनाः सुरोरगाः । स्वावासेषु तिं हित्वा चिरं तत्रैव रेमिरे ॥२४॥ ज्योतिष्का ज्योतिरङ्गेषु दीपाल्गेषु च कल्पनाः । भावनेन्द्राः नगङ्गेषु यथायोग्यां तिं दधुः ॥२४९॥ नग्वि साभरणं मास्वदंशुक पल्लवापरम् । ज्वलहीपं वनं कान्तं वधूवरमिवारुचत् ।।२५०॥ "अन्तर्वर्णमयाभूवशिह सिद्धार्थपादपाः । सिद्धार्थाधिष्ठिताधीडबुध्ना अध्ना इवोद्रचः ॥२५१॥ चैत्यद मेषु पूर्वोक्का वर्णनात्रापि योज्यताम् । किं तु कल्पद्रुमा ऐते संकल्पितफलप्रदाः ॥२५२॥
थे क्योंकि राजा भी बहुत ऊँचे अर्थात् अतिशय श्रेष्ठ अथवा उदार होते हैं, उत्तम छाया अर्थात् कान्तिसे युक्त होते हैं, अनेक प्रकारकी वस्तुओंकी प्राप्तिरूपी फलोंसे सुशोभित होते हैं
और तरह-तरहकी माला, वस्त्र तथा आभूषणोंसे युक्त होते हैं ॥२४५।। उन कल्पवृक्षोंको देखकर ऐसा मालूम होता था मानो अपने दस प्रकारके कल्पवृक्षोंकी पक्तियोंसे युक्त हुए देवकुरु और उत्तरकुरु ही भगवान्की सेवा करनेके लिए आये हों ॥२४६।। उन कल्पवृक्षोंके फल आभूषणोंके समान जान पड़ते थे, नवीन कोमल पत्ते वनोंके समान मालूम होते थे और शाखाओंके अग्रभागपर लटकती हुई मालाएँ बड़ी-बड़ी जटाओंके समान सुशोभित हो रही थीं ॥२४७॥ उन वृक्षोंके नीचे छायातलमें बैठे हुए देव और धरणेन्द्र अपने-अपने भवनोंमें प्रेम छोड़कर वहींपर चिरकाल तक क्रीड़ा करते रहते थे।।२४८।। ज्योतिष्कदेव ज्योतिरङ्ग जातिके कल्पवृक्षोंमें, कल्पवासी देव दीपांग जातिके कल्पवृक्षोंमें ओर भवनवासियोंके इन्द्र मालांग जातिके कल्पवृक्षोंमें यथायोग्य प्रीति धारण करते थे। भावार्थ-जिस देवको जो वृक्ष अच्छा लगता था वे उसीके नीचे क्रीड़ा करते थे ॥२४९॥ वह कल्पवृक्षोंका वन वधूवरके समान सुशोभित हो रहा था क्योंकि जिस प्रकार वधूवर मालाओंसे सहित होते हैं उसी प्रकार वह वन भी मालाओंसे सहित था, वधूवर जिस प्रकार आभूषणोंसे युक्त होते हैं उसी प्रकार वह वन भी आभूषणोंसे युक्त था, जिस प्रकार वधूवर सुन्दर वस्त्र पहिने रहते हैं उसी प्रकार उस वनमें सुन्दर वस टैंगे हुए थे, जिस प्रकार वर-वधूके अधर (ओठ) पल्लवके समान लाल होते हैं उसी प्रकार उस वनके पल्लव (नये पत्ते) लाल थे। वर-वधूके आस-पास जिस प्रकार दीपक जला करते हैं उसी प्रकार उस वनमें भी दीपक जल रहे थे और वर-वधू जिस प्रकार अतिशय सुन्दर होते हैं उसी प्रकार वह वन भी अतिशय सुन्दर था। भावार्थ-उस वनमें कहीं मालांग जातिके वृक्षोंपर मालाएँ लटक रही थीं, कहीं भूषणांग जातिके वृक्षोंपर भूषण लटक रहे थे, कहीं वस्त्रांग जातिके वृक्षोंपर सुन्दर-सुन्दर वस्त्र टँगे हुए थे, कहीं उन वृक्षोंमें नये-नये, लाललाल पत्ते लग रहे थे, और कहीं दीपांग जातिके वृक्षोंपर अनेक दीपक जल रहे थे ॥२५०॥ उन कल्पवृक्षोंके मध्यभागमें सिद्धार्थ वृक्ष थे, सिद्ध भगवान्की प्रतिमाओंसे अधिष्ठित होनेके कारण उन वृक्षोंके मूल भाग बहुत ही देदीप्यमान हो रहे थे और उन सबसे वे वृक्ष सूर्य के समान प्रकाशमान हो रहे थे ।।२५१।। पहले चैत्यवृक्षोंमें जिस शोभाका वर्णन किया गया है वह सब इन सिद्धार्थवृक्षोंमें भी लगा लेना चाहिए किन्तु विशेषता इतनी ही है
१. पङ्क्तीकृत: २. पल्लवानि आ समन्तात् धरतीति, पक्षे पल्लवमिवाधरं यस्य तत् । ३. ज्वलदोनाङ्गम् । ४. वधूश्च वरश्च वधूवरम् । ५. वनमध्ये । ६. अधिकदीप्र । ७. आदित्याः। .