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आदिपुराणम् तक्षेत्र मध्यस्था प्रथमा पीठिका बमौ । बैड्यरत्ननिर्माणा कुलात्रिशिखरायिता ॥२९॥ तत्र षोडशसोपानमार्गाः स्युः षोडशान्तराः । महादिक्षु सभाकोष्ठप्रवेशेषु च विस्तृताः ॥२९॥ तां पाठिकामलं चक्रुरष्टमङ्गलसंपदः । धर्मचक्राणि चोढानि प्रांशुभिर्यक्षमूर्धमिः ॥२९२॥ सहस्राराणि तान्युद्यद्रत्नरश्मीनि रेजिरे । मानुबिम्बानिवोद्यन्ति पीठिकोदयपर्वतात् ॥२९३॥ द्वितीयमभवत् पीठं तस्योपरि हिरण्मयम् । दिवाकरकरस्पर्धिवपुरुयोतिताम्बरम् ॥२९॥ तस्योपरितले रेजुर्दिश्वष्टासु महाध्वजाः । लोकपाला इवोत्तमाः सुरेशाममिसम्मताः ॥२९५॥ चक्रेमवृषमाम्भोजवस्त्रसिंहगरुत्मताम् । माल्यस्य च ध्वजा रेजुः सिद्धाष्टगुणनिर्मलाः॥२९६॥ नूनं पापपरागस्य सम्मार्जनमिव ध्वजाः । कुर्वन्ति स्म मरुद्भूतस्फुरदंशुकजृम्मि तैः ॥२९७॥ तस्योपरि स्फुरत्नरोचिस्ततमस्तति । तृतीयममवत् पीठ सर्वरत्नमयं पृथु ॥२९८॥ त्रिमेखलमदः पीटं पराय॑मणिनिर्मितम् । बमौ मेरुरिवोपास्त्यै मर्तुस्तादप्यमाश्रितः ॥२९९॥ स चक्रश्चक्रवर्तीव सध्वजाः सुरदन्तिवत् । मर्ममूर्तिमहामेरुरिव पोठादिरुद्वमौ ॥३०॥ पुष्पप्रकरमात्रातुं निलीना या षट्पदाः । हेमच्छायासमाक्रान्ताः सौवर्णा इव रेजिरे ॥३०॥
उसी श्रीमण्डपसे घिरे क्षेत्रके मध्यभागमें स्थित पहली पीठिका सुशोभित हो रही थी, वह पीठिको वैडूर्यमणिकी बनी हुई थी और ऐसी जान पड़ती थी मानो कुलाचलका शिखर ही हो ॥२९०।। उस पीठिकापर सोलह जगह अन्तर देकर सोलह जगह ही बड़ी-बड़ी सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। चार जगह तो चार महादिशाओं अर्थात् पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिणमें चार महावीथियोंके सामने थीं और बारह जगह सभाके कोठोंके, प्रत्येक प्रवेशद्वार पर थीं॥२९॥ उस पीठिकाको अष्ट मंगलद्रव्यरूपी सम्पदाएँ और यक्षोंके ऊँचे-ऊँचे मस्तकोंपर रखे हुए धर्मचक्र अलंकृत कर रहे थे ।।२९२॥ जिनमें लगे हुए रत्नोंकी किरणें ऊपरकी ओर उठ रही हैं ऐसे हजार-हजार आराओंवाले वे धर्मचक्र ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो पीठिकारूपी उदयाचलसे उदय होते हुए सूर्यके बिम्ब ही हों ।।२९।। उस प्रथम पीठिकापर सुवर्णका बना हुआ दूसरा पीठ था, जो सूर्यको किरणोंके साथ स्पर्धा कर रहा था और आकाशको प्रकाशमान बना रहा था ॥२९४|| उस दूसरे पीठके ऊपर आठ दिशाओंमें आठ बड़ी-बड़ी ध्वजाएँ सुशोभित हो रही थीं, जो बहुत ऊँची थीं और ऐसी जान पड़ती थीं मानो इन्द्रोंको स्वीकृत आठ लोकपाल ही हों ॥२९५।। चक्र, हाथी, वैल, कमल, वस्त्र, सिंह, गरुड़ और मालाके चिह्नसे सहित तथा सिद्ध भगवानके आठ गुणोंके समान निर्मल वे ध्वजाएँ बहुत अधिक सशोभित हो रही थीं ॥२९६॥ वायुसे हिलते हुए देदीप्यमान वस्त्रोंको फटकारसे वे ध्वजाएँ ऐसी जान पड़ती थीं मानो पापरूपी धूलिका सम्मार्जन ही कर रही हों अर्थात् पापरूपी धूलिको झाड़ ही रही हों ।।२९७।। उस दूसरे पीठपर तीसरा पीठ था जो कि सब प्रकारके रत्नोंसे बना हुआ था, बड़ा भारी था और चमकते हुए रत्नोंकी किरणोंसे अन्धकारके समूहको नष्ट कर रहा था ॥२९८|| वह पीठ तीन कटनियोंसे युक्त था तथा श्रेष्ठ रत्नोंसे बना हुआ था इसलिए ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो उस पीठका रूप धरकर सुमेरु पर्वत ही भगवानकी उपासना करनेके लिए आया हो ।।२९९।। वह पीठरूपी पर्वत चक्रसहित था इसलिए चक्रवर्तीके समान जान पड़ता था, ध्वजासहित था इसलिए ऐरावत हाथोके समान मालूम होता था और सुवर्णका बना हुआ था इसलिए महामेरुके समान सुशोभित हो रहा था ॥३०॥ पुष्पोंके समूहको सूघनेके लिए जो भ्रमर उस पीठपर बैठे हुए थे उनपर सुवर्णको छाया पड़ रही
१. तल्लक्ष्मीमण्डपावरुद्धक्षेत्रमध्ये स्थिता। • षोडशस्तराः ल०, ८० । षोडशच्छदाः । ३. उन्नतैः । ४. जम्भणैः । ५. सुवर्णमयाः ।