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द्वाविंशं पर्व यो बभावम्बरस्यान्त विम्बितान्याम्बरोपमः । त्रिजगज्जनतास्थानसंग्रहावाप्तवैभवः ॥२८२॥ यस्योपरितले मुक्ता गुह्यकैः कुसुमोस्कराः। विदधुस्तारकाशंकामधोमाजां नृणां हृदि ॥२८३॥ यत्र मत्त व गसंसूच्याः कुसुमस्रजः । न म्लानिमीयुजैनांघ्रिच्छायाशैत्याश्रयादिव ॥२८॥ नीलोत्पलोपहारेषु निलीना भ्रमरावलिः । विरुतै रंगमद् व्यक्ति यत्र साम्यादलक्षिता ॥२८५॥ योजनप्रमिते यस्मिन् सम्ममुर्नुसुरासुराः । स्थिताः सुखमसंबाधमहो माहात्म्यमीशितुः ॥२८६॥ यस्मिन् शुचिमणिप्रान्तमुपेता हंससन्तांतेः । "गुणसारश्ययोगेऽपि व्यज्यते स्म विकूजितैः॥२८७॥ यमित्तयः स्वसंक्रान्सजगस्त्रितयबिस्विकाः । चित्रिता इव संरेजुर्जगच्छीदर्पणश्रियः ॥२८॥ "यदुत्सर्पत्प्रमाजालजलस्नपितमूर्तयः । तीर्थावगाहनं चक्रुरिव देवाः सदानवाः ॥२८९॥
श्री (लक्ष्मी) स्वीकृत की थी ॥२८॥ तीनों लोकोंके समस्त जीवोंको स्थान दे सकनेके कारण जिसे बड़ा भारी वैभव प्राप्त हुआ है ऐसा वह श्रीमण्डप आकाशके अन्तभागमें ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो प्रतिबिम्बित हुआ दूसरा आकाश ही हो । भावार्थ-उस श्रीमण्डपका ऐसा अतिशय था कि उसमें एक साथ तीनों लोकोंके समस्त जीवोंको स्थान मिल सकता था, और वह अतिशय ऊँचा तथा स्वच्छ था ।।२८२॥ उस श्रीमण्डपके ऊपर यक्षदेवोंके द्वारा छोड़े हुए फूलोंके समूह नीचे बैठे हुए मनुष्योंके हृदयमें ताराओंकी शंका कर रहे थे ।।२८३॥ उस श्रीमण्डपमें मदोन्मत्त शब्द करते हुए भ्रमरोंके द्वारा सूचित होनेवाली फूलोंकी मालाएँ मानो जिनेन्द्रदेवके चरण-कमलोंकी छायाकी शीतलताके आश्रयसे ही कभी म्लानताको प्राप्त नहीं होती थीं-कभी नहीं मुरझाती थीं । भावार्थ-उस श्रीमण्डपमें स्फटिकमणिको दोवालोंपर जो सफेद फूलोंकी मालाएँ लटक रही थीं वे रंगकी समानताके कारण अलगसे पहचानमें नहीं आती थीं परन्तु उनपर शब्द करते हुए जो काले-काले मदोन्मत्त भ्रमर बैठे हुए थे उनसे ही उनकी पहचान होती थी। वे मालाएँ सदा हरी-भरी रहती थीं-कभी मुरझाती नहीं थीं जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो भगवान्के चरण-कमलोंकी शीतल छायाका आश्रय पाकर ही नहीं मुरझाती हों ।।२८४॥ उस श्रीमण्डपमें नील कमलोंके उपहारोंपर बैठी हुई भ्रमरोंकी पंक्ति रंगकी सदृशताके कारण अलगसे दिखाई नहीं देती थी केवल गुंजारशब्दोंसे प्रकार से रही थी ।।२८५॥ अहा, जिनेन्द्र भगवानका यह कैसा अद्भुत माहात्म्य था कि केवल एक योजन लम्बे-चौड़े उस श्रीमण्डपमें समस्त मनुष्य, सुर और असुर एक-दूसरेको बाधन देते हुए सुखसे बैठ सकते थे ।।२८६॥ उस श्रीमण्डपमें स्वच्छ मणियोंके समीप आया हुशाहंसोंका समूह यद्यपि उन मणियोंके समान रंगवाला ही था-उन्हींके प्रकाशमें छिप गया था मथापि वह अपने मधुर शब्दोंसे प्रकट हो रहा था ।।२८७॥ जिनकी शोभा जगदी लक्ष्मीके दर्पणके ममान है ऐसी श्रीमण्डपकी उन दीवालोंमें तीनों लोकोंके समस्त पदाकि प्रतिबिम्ब पड रहे थे और उन प्रतिबिम्बोंसे वे दीवालें ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो उनमें अनेक प्रकारके चित्र हो खींचे गये हों ॥२८८|| उस श्रीमण्डपकी फैलती हुई कान्तिके समुदायरूपी जलसे जिनके शरीर नहलाये जा रहे हैं ऐसे देव और दानव ऐसे जान पड़ते थे मानो किसी तीर्थमें स्नान ही कर रहे हों ।।२८९॥
१.-स्यान्ते ल०, द०, इ० । २. अपरव्योमसदृशः । ३. विभुत्वम् । ४. देवैः । ५. वनत् । ६. रवैः । ७. वर्णसादृश्यात् । ८. पीठसहितकयोजनप्रमाणे । ९. स्फटिकरत्नप्रान्तम् । १० प्राप्ताः । ११. शुभ्रगुणसाम्य । १२. प्रकटीक्रियते स्म । १३. मुकुरशोभा । १४. लक्ष्मीमण्डप । १५. मज्जनम् ।