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आदिपुराणम् क्षीरोदोदकधीताजीरमलास्ता हिरण्मयीः । प्रणिपत्याईतामाः 'प्रानचु सुरासुराः ॥१९॥ स्तुवन्ति स्तुतिमिः केचिदर्थ्यामिः प्रणमन्ति च । स्मृस्वावधार्य गापन्ति केचिरस्म सुरसत्तमाः॥१९॥ पथाशोकस्तथान्येऽपि विशेयाश्चैत्यभूरुहाः । वने खे स्वे सजातीया जिनविम्बेखबुध्नकाः ॥१९५॥ भशोकः सप्तपर्णश्च चम्पकश्चूत एव च । चत्वारोऽमी वनेच्वासन प्रोतुझाश्चैत्यपादपाः ॥२०॥ चैस्याधिष्ठितबुध्नस्वादूढत चामरूडयः । शाखिनोऽमी विभान्ति स्म सुरेन्द्रः प्रासपूजनाः ॥२०॥ फलैरलंकृता दीप्राः 'स्वपादाक्रान्तभूतकाः । पार्थिवाः सत्यमेवैते पार्थिवा पत्रसंभृताः ॥२०२॥ प्रम्यजितानुरागाः स्वैः पल्लवैः कुसुमोकरः । प्रसादं दर्शयन्तोऽन्तर्विभुं भेजुरिमे द्रुमाः ॥२०॥ तरूणामेव"तावरचेदीरको विमवोदयः । किमस्ति वाच्यमीशस्य विभवेऽनीशात्मनः ॥२०॥
धूप, दीप, फल और अक्षत आदिसे निरन्तर पूजा किया करते थे ॥१९६॥ क्षीरसागरके जलसे जिनके अंगोंका प्रक्षालन हुआ है और जो अतिशय निर्मल हैं ऐसी सुवर्णमयो अरहंतकी उन प्रतिमाओंको नमस्कार कर मनुष्य, सुर और असुर सभी उनकी पूजा करते थे ॥१९७।। कितने ही उत्तम देव अर्थसे भरी हुई स्तुतियोंसे उन प्रतिमाओंकी स्तुति करते थे, कितने ही उन्हें नमस्कार करते थे और कितने ही उनके गुणोंका स्मरण कर तथा चिन्तवन कर गान करते थे ॥१९८।। जिस प्रकार अशोकवनमें अशोक नामका चैत्यवृक्ष है उसी प्रकार अन्य तीन वनों में भी अपनी-अपनी जातिका एक-एक चैत्यवृक्ष था और उन सभीके मूलभाग जिनेन्द्र भगवानको प्रतिमाओंसे देदीप्यमान थे ॥१९९॥ इस प्रकार ऊपर कहे हुए चारों वनोंमें क्रमसे अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक और आम्र नामके चार बहुत ही ऊँचे चैत्यवृक्ष थे ॥२०॥ मूलभागमें जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा विराजमान होनेसे जो 'चैत्यवृक्ष' इस सार्थक नामको धारण कर रहे हैं और इन्द्र जिनकी पूजा किया करते हैं ऐसे वे चैत्यवृक्ष बहुत ही अधिक सुशोभित हो रहे थे ।।२०१।। पार्थिव अर्थात् पृथिवीसे उत्पन्न हुए वे वृक्ष सचमुच ही पार्थिव अर्थात् पृथिवीके स्वामी-राजाके समान जान पड़ते थे क्योंकि जिस प्रकार राजा अनेक फलोंसे अलंकृत होते हैं उसी प्रकार वे वृक्ष भी अनेक फलोंसे अलंकृत थे, राजा जिस प्रकार तेजस्वी होते हैं उसी प्रकार वे वृक्ष भी तेजस्वी (देदीप्यमान) थे, राजा जिस प्रकार अपने पाद अर्थात् पैरोंसे समस्त पृथिवीको आक्रान्त किया करते हैं (समस्त पृथिवीमें अपना यातायात रखते हैं ) उसी प्रकार वे वृक्ष भी अपने पाद अर्थात् जड़ भागसे समस्त पृथिवीको आक्रान्त कर रहे थे (समस्त पृथिवीमें उनकी जड़ें फैली हुई थीं) और राजा जिस प्रकार पत्र अर्थात् सवारियोंसे भरपूर रहते हैं उसी प्रकार वे वृक्ष भी पत्र अर्थात् पत्तोंसे भरपूर थे ।।२०२।। वे वृक्ष अपने पल्लव अर्थात् लाल-लाल नयी कोंपलोंसे ऐसे जान पड़ते थे मानो अन्तरंगका अनुराग (प्रेम) ही प्रकट कर रहे हों और फूलोंके समूहसे ऐसे सुशोभित हो हो रहे थे मानो हलयकी प्रसन्नता ही दिखला रहे हों-इस प्रकार वे वृक्ष भगवानकी सेवा कर रहे थे ॥२०३।। जब कि उन वृक्षोंका ही ऐसा बड़ा भारी माहात्म्य था तब उपमारहित भगवान् वृषभदेवके केवलज्ञानरूपी विभवके विषयमें कहना ही क्या है-वह तो सर्वथा
१. अर्चयन्ति स्म । २. अर्थादनपेताभिः । ३. -वधाय ८० । ४. चैत्यवृक्षनामप्रसिद्धयः । ५. पक्षे इष्टफलैः । ६. स्वपादराक्रान्तं भूतल येस्ते, पक्षे स्वपादेष्वाक्रान्त भूतलं येषां ते । ७. पृथिव्या ईशाः पार्थिवाः पृथ्वीमया वा । ८. पृथिव्यां भवाः पार्थिवाः, वृक्षा इत्यर्थः । ९. पक्षे वाहनसंभृताः । 'पत्रं वाहनपर्वयोः' इत्यभिधानात् । १०. तावाश्चे द०, ल०, अ०, स० ।