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द्वाविंशं पर्व
शाखाप्रन्यासविश्वाशः' स रेजेऽशोकपादपः । अशोकमयमेवेदं जगत्कर्तुमिवोद्यतः ॥ १८७॥ सुरभीकृतविश्वाशैः कुसुमैः स्थगिताम्बरः । 'सिद्धाध्वानमिवारुन्धन् रेजेऽसौ चैत्यपादपः ॥ १८८ ॥ गारुडोपलनिर्माणः पत्रैश्चित्रैश्चितोऽमितः । पद्मरागमयैः पुष्पस्तवकैः परितो वृतः ॥ १८९ ॥ हिरण्मयमहोदप्रशाखो वज्रेन्द्रबुध्नकः । कलालिकुलझङ्कारैस्तर्जयमिव मन्मथम् ॥ १९० ॥ सुरासुरनरेन्द्रान्तरक्षे मालानविग्रहः" । स्वप्रभापरिवेषेण योतिताखिलदिङ्मुखः ॥१९१॥ "रणदालम्बिवष्टाभिर्बधिरीकृत विश्वभूः । भूर्भुवः स्वर्जयं भर्तुः प्रतोषादिव घोषयन् ॥ १९२॥ ध्वजांशुकपरामृष्टनि घघनपद्धतिः । जगज्जनाङ्गसंलग्नमार्गः परिमृजमिव ॥ १९३॥ मूर्ध्ना छत्रत्रयं विभ्रन्मुक्तालम्बनभूषितम् । विभोस्त्रिभुवनेश्वयं विना वावेव दर्शयन् ॥ ५९४ ॥ भ्रेजिरे " बुध्नभागेऽस्य प्रतिमा दिक्चतुष्टये । जिनेश्वराणामिन्द्राद्यैः समवाप्ताभिषेचनाः ॥ १९५॥ गन्धधूपदीपायैः फलैरपि सहाक्षतैः । तत्र निस्यार्चनं देवा जिनार्थानां वितेनिरे ॥ १९६ ॥
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भित हो रहा था ।। १८६ || जिसने अपनी शाखाओंके अग्रभागसे समस्त दिशाओंको व्याप्त कर रखा है ऐसा वह अशोक वृक्ष ऐसा शोभायमान हो रहा था मानो समस्त संसारको अशोकमय अर्थात् शोकरहित करनेके लिए ही उद्यत हुआ हो || १८७|| समस्त दिशाओंको सुगन्धित करनेवाले फूलोंसे जिसने आकाशको व्याप्त कर लिया है ऐसा वह चैत्यवृक्ष ऐसा सुशोभित हो रहा था मानो सिद्ध- विद्याधरोंके मार्गको ही रोक रहा हो || १८८|| वह वृक्ष नीलमणियों के बने हुए अनेक प्रकारके पत्तोंसे व्याप्त हो रहा था और पद्मराग मणियोंके बने हुए फूलोंके गुच्छोंसे घिरा हुआ था ॥ १८९ ॥ सुवर्णकी बनी हुई उसकी बहुत ऊँची-ऊँची शाखाएँ थीं, उसका देदीप्यमान भाग वज्रका बना हुआ था तथा उसपर बैठे हुए भ्रमरोंके समूह जो मनोहर झंकार कर रहे थे उनसे वह ऐसा जान पड़ता था मानो कामदेवको तर्जना ही कर रहा हो || १९०॥ वह चैत्यवृक्ष सुर, असुर और नरेन्द्र आदिके मनरूपी हाथियोंके बाँधनेके लिए खंभेके समान था तथा उसने अपने प्रभामण्डलसे समस्त दिशाओंको प्रकाशित कर रखा था ।।१९१।। उसपर जो शब्द करते हुए घंटे लटक रहे थे उनसे उसने समस्त दिशाएँ बहिरी कर दी थीं और उनसे वह ऐसा जान पड़ता था कि भगवान्ने अधोलोक, मध्यलोक और स्वर्गलोक में जो विजय प्राप्त की है सन्तोषसे मानो वह उसकी घोषणा ही कर रहा हो || १९२ | | वह वृक्ष ऊपर लगी हुई ध्वजाओंके वस्त्रोंसे पोंछ-पोंछकर आकाशको मेघरहित कर रहा था और उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो संसारी जीवोंकी देहमें लगे हुए पापोंको ही पोंछ रहा हो || १९३ ।। वह वृक्ष मोतियोंकी झालरसे सुशोभित तीन छत्रोंको अपने सिरपर धारण कर रहा था और उनसे ऐसा जान पड़ता था मानो भगवान्के तीनों लोकोंके ऐश्वर्यको बिना वचनोंके ही दिखला रहा हो || १९४ || उस चैत्यवृक्ष के मूलभागमें चारों दिशाओं में जिनेन्द्रदेवकी चार प्रतिमाएँ थीं जिनका इन्द्र स्वयं अभिषेक करते थे || १९५ || देव लोग वहाँपर विराजमान उन जिनप्रतिभाओंकी गन्ध, पुष्पोंकी माला,
१. निखिलदि । २. देवपथं मेघपथमित्यर्थः । " पिशाचो गुह्यको सिद्धो भूतोऽमी देवयोनयः ।” ३. मरकतरत्न । ४. दीप्तमूलः । ५. मनइन्द्रियगजबन्धनस्तम्भमूर्तिः । ८. भूलोकनागलोकस्वर्गलोकजयम् । ९. संमाजित । १०. मेघमार्गः । १३. जिनप्रतिमानाम् ।
६. ध्वनत् । ७. निखिलभूमिः । ११. सम्मार्जयन् । १२. मूलप्रदेशे ।