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द्वाविंशं पर्व निधयो नवशमाद्यास्तद्वारापान्तसेविनः । शशंसुः प्रामवं जनं भुवनत्रितयातिगम् ॥१४६॥ त्रिजगत्प्रभुणा नूनं विमहिनावधारिताः । बहिद्वार स्थिता दूराविधयस्तं सिपेविरे ॥१७॥ 'तेषामन्तर्महावीथ्या उभयोर्भागयोरभूत् । नाव्यशालाद्वयं दिक्षु प्रत्येकं चतसृष्वपि ॥१८॥ तिसृमिभूमिभिर्नाट्यमण्डयौ तौ विरजनुः । विमुक्तस्यात्मकं मार्ग 'नणां वस्तुमिवोथतौ ॥१४९॥ हिरण्मयमहास्तम्भौ शुम्भस्फटिकमित्तिको । तौ रत्नशिखरारुद्धनभोभागी विरेजतुः ॥१५॥ नाव्यमण्डपरङ्गेपु नृत्यन्ति स्मामरमियः । शत हृदा इवामग्नमूर्तयः स्वप्रमाहूदे ॥१५॥ गायन्ति जिनराजस्य विजयं ताः स्म सस्मिताः। तमेवामिनयन्स्योऽमूः चिक्षिपुः पौष्पमअलिम् ॥१५२॥ समं वीणानिनादन मृदङ्गध्वनिरुचरन् । व्यतनोत् प्रावृहारम्भशकां तत्र शिखण्डिनाम् ॥१५३॥ शरदभ्रनिर्भ तस्मिन् द्वितयं नाव्यशालयोः । विद्यादिलासमातेनुर्नृत्यनस्यः सुरयोषितः ॥१५॥ किराणां कलक्वाणः सोद्गानरूपवीणितैः । तत्रासकि परां भेजुः प्रेक्षिणां चित्तवृत्तयः ॥१५५॥
ततो धूपघटो द्वौ द्वौ वीथीनामुमोदिशोः । धूपधूमैन्यरुन्धातां प्रसरदिनमोङ्गणम् ॥१५६॥ लिए अवकाश न देखकर उन तोरणोंमें ही आकर बँध गये हों ॥१४५।। उन गोपुरद्वारोंके समीप प्रदेशोंमें जो शंख आदि नौ निधियाँ रखी हुई थीं वे जिनेन्द्र भगवान्के तीनों लोकोंको उल्लंघन करनेवाले भारी प्रभावको सूचित कर रही थीं ॥१४६।। अथवा दरवाजेके बाहर रखी हुई वे निधियाँ ऐसी मालूम होती थीं मानो मोहरहित, तीनों लोकोंके स्वामी भगवान् जिनेन्द्रदेवने उनका तिरस्कार कर दिया था इसलिए दरवाजेके बाहर स्थित होकर दूरसे ही उनकी सेवा कर रही हों ॥१४७॥ उन गोपुरदरवाजोंके भीतर जो बड़ा भारी रास्ता था उसके दोनों ओर दो नाट्यशालाएँ थीं, इस प्रकार चारों दिशाओंके प्रत्येक गोपुर-द्वारमें दोदो नाट्यशालाएँ थीं ॥१४८॥ वे दोनों ही नाट्यशालाएँ तीन-तीन खण्डकी थीं और उनसे ऐसी जान पड़ती थीं मानो लोगोंके लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रके भेदसे तीन भेदवाला मोक्षका मार्ग ही बतलानेके लिए तैयार खड़ी हों ॥१४९।। जिनके बड़े-बड़े खम्भे सुवणके बने हुए हैं, जिनकी दीवाले देदीप्यमान स्फटिक मणिकी बनी हुई हैं और जिन्होंने अपने रत्नोंके बने हुए शिखरोंसे आकाशके प्रदेशको व्याप्त कर लिया है ऐसी वे दोनों नाट्यशालाएँ बहुत ही अधिक सुशोभित हो रही थीं ॥१५०1। उन नाट्यशालाओंकी रङ्गभूमिमें ऐसी अनेक देवांगनाएँ नृत्य कर रही थीं, जिनके शरीर अपनी कान्तिरूपी सरोवर में डूबे हुए थे और जिससे वे बिजलीके समान सुशोभित हो रही थीं ॥१५१।। उन नाट्यशालाओंमें इकट्ठी हईवे देवांगनाएँ जिनेन्द्रदेवकी विजयके गीत गा रही थी और उसी विजयका अभिनय करती हुई पुष्पाञ्जलि छोड़ रही थीं ॥१५२॥ उन नाट्यशालाओंमें वीणाकी आवाज के साथ साथ जो मृदंगकी आवाज उठ रही थी वह मयूरोको वर्षाऋतुके प्रारम्भ होनेकी शंका उत्पन्न कर रही थीं ॥१पशा वे दोनों ही नाट्यशालाएँ शरदऋतुके बादलोंके समान सफेद थीं इसलिए उनमें नृत्य करती हुई वे देवाङ्गनाएँ ठीक बिजलीकी शोभा फैला रही थीं ॥१५४।। उन नाट्यशालाओंमें किन्नर जातिके देव उत्तम संगीतके साथ-साथ मधुर शब्दोंवाली वीणा बजा रहे थे जिससे देखनेवालोंकी चित्तवृत्तियाँ उनमें अतिशय आसक्तिको प्राप्त हो रही थीं ।। १५५ ।। उन नाट्यशालाओंसे कुछ आगे चलकर गलियोंके दोनों ओर दो-दो धूपघट रखे हुए थे जो कि फैलते हुए धूपके धुएँ से आकाशरूप आँगनको व्याप्त कर रहे
१. कालमहाकालपाण्डुमाणवशङ्खनैसर्पपद्यपिङ्गलनानारत्नाश्चेति । २. प्रभुत्व । ३. अवज्ञीकृताः । ४. गोपुराणाम् । ५. रूप्यम, रत्नत्रयमिति यावत् । ६. नृणां द०, ल., म०, ५०, अ०। ७. विद्युताः । ८. संगताः । ९. विजयमेव । १०. वीणया उपगीतः ।