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आदिपुराणम् पुरः किल्विषिकंपूच्चैरातम्वरस्वानकस्वनान् । स्वैरं स्वैर्वाहनैः शक्रं व्रजन्तमनुवबजुः ॥२०॥ अप्सरस्सु नटन्तीषु गन्धर्वातोद्यवादनैः । 'किन्नरेषु च गायत्सु चचाल सुरवाहिनी ॥२१॥ इन्द्रादीनामथैतेषां लक्ष्म किंचिदन यते । इन्दनायणिमायष्टगुणैरिन्द्रो बनन्यजैः ॥२२॥ आजैश्वर्याद् विनाम्यैस्तु गुणैरिन्द्रेण संमिताः । सामानिका भवेयुस्ते शक्रेणापि गुरूकृताः ॥२३॥ पितृमातृगुरुप्रख्याः संमतास्ते सुरेशिनाम् । लभन्ते सममिन्द्रश्च सरकार मान्यतोचितम् ॥२४॥ त्रायस्त्रिशास्त्रयस्त्रिंशदेव देवाः प्रकीर्तिताः । पुरोधोमन्थ्यमात्यानां सदृशास्ते दिवीशि नाम् ॥२५॥ भवाः परिषदीस्यासन् सुराः पारिषदाहयाः । तै पीठमर्दसरशाः सुरेन्द्ररुप लालिताः ॥२६॥ भारमरक्षाः शिरोर क्षसमानाः प्रोयतासयः । विभवायैव "पर्यन्ते पर्यटन्त्यमरेशिनाम् ॥२७॥ लोकपालास्तु लोकान्तपालका दुर्गपालवत्" । पदात्यादीन्यनीकानि दण्डकल्पानि सप्त वै ॥२८॥ पौरजानपदप्रख्याः सुरा ज्ञेया प्रकीर्णकाः । भवेयुराभियोग्याख्या दासकर्मकरोपमाः ॥२९॥
मताः किल्बिषमस्त्येषामिति किल्बिषिकामराः । बायाः प्रजा इव स्वर्गे स्वरूपपुण्योदितळ्यः॥३०॥ प्रकीर्णक जासिके देव अपनी-अपनी सवारियोंपर आरूढ़ हो इच्छानुसार जाते हुए सौधर्मेन्द्र के पीछे-पीछे जा रहे थे ॥१९-२०।। उस समय अप्सराएँ नृत्य कर रही थीं, गन्धर्व देव बाजे बजा रहे थे और किनरी जातिकी देवियाँ गीत गा रही थीं, इस प्रकार वह देवोंकी सेना बड़े वैभव के साथ जा रही थी ।।२।। अब यहाँपर इन्द्र आदि देवोंके कुछ लक्षण लिखे जाते हैं-अन्य देवोंमें न पाये जानेवाले अणिमा महिमा आदि गुणोंसे जो परम ऐश्वर्यको प्राप्त हों उन्हें इन्द्र कहते हैं ।।२२।। जो आज्ञा और ऐश्वर्यके बिना अन्य सब गुणोंसे इन्द्रके समान हों और इन्द्र भी जिन्हें बड़ा मानता हो वे सामानिकदेव कहलाते हैं ॥२३शा में सामानिक जातिके देव इन्द्रोंके पिता माता और गुरुके तुल्य होते हैं तथा ये अपनी मान्यता के अनुसार इन्द्रों के समान ही सत्कार प्राप्त करते हैं ॥२४॥ इन्द्रोंके पुरोहित मन्त्री और अमात्यों (सदा साथमें रहनेवाले मन्त्री) के समान जो देव होते हैं वे त्रायस्त्रिंश कहलाते हैं । ये देव एकएक इन्द्रको सभामें गिनतीके तैंतीस-तैतीस ही होते हैं ।।२५।। जो इन्द्रकी सभामें उपस्थित रहते हैं उन्हें पारिषद कहते हैं। ये पारिषद जातिके देव इन्द्रोंके पीठमर्द अर्थात् मित्रोंके तुल्य होते हैं और इन्द्र उनपर अतिशय प्रेम रखता है ।।२६।। जो देव अंगरक्षकके समान सलवार ऊँची उठाकर इन्द्र के चारों ओर घूमते रहते हैं उन्हें आत्मरक्ष कहते हैं । यद्यपि इन्द्रको कुछ भय नहीं रहता तथापि ये देव इन्द्रका वैभव दिखलानेके लिए ही उसके पास ही पास घूमा करते हैं ॥२७॥ जो दुर्गरक्षकके समान स्वर्गलोककी रक्षा करते हैं उन्हें लोकपाल कहते हैं और सेना के समान पियादे आदि जो सात प्रकारके देव हैं उन्हें अनीक कहते हैं (हाथी, घोड़े, रथ, पियादे, बैल, गन्धर्व और नृत्य करनेवाली देवियाँ यह सात प्रकारकी देवोंकी सेना है ) ॥२८॥ नगर तथा देशोंमें रहनेवाले लोगोंके समान जो देव हैं उन्हें प्रकीर्णक जानना चाहिए और जो नौकर-चाकरोंके समान हैं वे आभियोग्य कहलाते हैं ॥२९॥ जिनके किल्बिष अर्थात् पापकर्मका उदय हो उन्हें किल्विषिक देव कहते हैं । ये देव . अन्त्यजोंकी तरह अन्य देवोंसे बाहर रहते हैं। उनके जो कुछ थोड़ा-सा पुण्यका उदय होता
.. १. किन्नरीषु ल०, म० । २. अनुवक्ष्यते । ३. परमेश्वर्यात् । ४. समानीकृताः । ५. इतरसुरैः कृत. सत्कारम् । ६. नाकेशिनाम् । ७. उपनायकभेदसंधानकारिपुरुषसदृश इत्यर्थः। ८.-रतिलालिताः ल०, म । ९. अङ्गरक्षसदृशाः । अथवा सेवकसमानाः । १०. प्रोद्यतखड़गाः । ११. पर्यन्तात् । १२. सीमान्तवर्तिदुर्गपालसदृशा इत्यर्थः । १३. सेनासदशानि । १४. समानाः । १५. पापम् । १६. चाण्डालादिबाह्यप्रजावत् ।