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आदिपुराणम् दिक्चतुष्टयमाश्रित्य रंजे स्तम्भचतुष्टयम् । तसल्या जादिवोद्भूतं जिनानन्तचतुष्टयम् ॥१७॥ हिरण्मयीजिनेन्द्रास्तेिषां 'बुध्नप्रतिष्ठिताः । देवेन्द्राः पूजयन्ति स्म क्षीरोदाम्भोऽभिषेचनैः ॥१८॥ नित्यातोच महावाचैर्निस्यसंगीतमङ्गलैः । मृत्तनित्यप्रवृत्तश्च मानस्तम्माः स्म मान्स्यमी ॥१९॥ पीठिका जगतीमध्ये तन्मध्ये च निमेखलम् । पीठं तन्मूनि सदमुना मानस्तम्माः प्रतिष्ठिताः ॥१०॥ हिरण्मयानाः प्रोत्तमा मूनिच्छन्नत्रयाहिताः । सुरेन्द्रनिर्मितत्वारच प्रासेन्य ध्वजरूविकाom मानस्तम्मान्महामान योगास्त्रैलोक्यमाननात् । अन्वर्थसम्शया तज्जनिस्तम्भाः प्रकीर्तिताः ॥१०॥ स्तम्मपर्यन्तभूमागमलंचक्रुः सहोत्पलाः । प्रसासलिला बाप्यो भन्यानामिव शुद्धयः ॥१०३॥ वाप्यस्ता रेजिरे फुल्लकमलोत्पलसंपदः । मक्त्या जैनी श्रियं द्रष्टुं भुवेबोद्घाटिता रशः ॥१०॥ निलीनालिकुलै रेजुरुत्पलस्ता' विकस्वरः । महोत्पलैश्च संछनाः "साजनैरिव लोचनः ॥१०५॥
दिशं प्रति चतस्रस्ता सस्ताः"काबीरिवाकुलाः । दधति स्म शकुन्तानां सन्ततीः स्वतटाश्रिताः ॥१०॥ सुशोभित हो रहे थे क्योंकि दिग्गज भी आकाशका स्पर्श करनेवाले, महाप्रमाणके धारक, घण्टाओंसे युक्त तथा चमर और ध्वजाओंसे सहित होते हैं ॥१६॥ चार मानस्तम्भ चार दिशाओंमें सुशोभित हो रहे थे और ऐसे जान पड़ते थे मानो उन मानस्तम्भोंके छलसे भगवान्के अनन्तचतुष्टय ही प्रकट हुए हों ॥९७। उन मानस्तम्भोंके मूल भागमें जिनेन्द्र भगवान्की सुवर्णमय प्रतिमाएँ विराजमान थीं जिनकी इन्द्र लोग क्षीरसागरके जलसे अभिषेक करते हुए पूजा करते थे ॥९८॥ वे मातस्तम्भ निरन्तर बजते हुए बड़े-बड़े बाजासे निरन्तर होनेवाले मङ्गलमय गानों और निरन्तर प्रवृत्त होनेवाले नृत्योंसे सदा सुशोभित रहते थे ॥१९॥ ऊपर जगतीके बीचमें जिस पीठिकाका वर्णन किया जा चुका है उसके मध्यभागमें तीन कटनीदार एक पीठ था। उस पीठके अग्रभागपर ही वे मानस्तम्भ प्रतिष्ठित थे, उनका मूल भाग बहुत ही सुन्दर था, वे सुवर्णके बने हुए थे, बहुत ऊँचे थे, उनके मस्तकपर तीन छत्र फिर रहे थे, इन्द्र के द्वारा बनाये जानेके कारण उनका दूसरा नाम इन्द्रध्वज भी रूढ़ हो गया था। उनके देहानेसे मिथ्यादष्टि जीवाका सब मान नष्ट हो जाता था, उनका परिमाण बहुत ऊँचा था और तीन लोकके जीव उनका सम्मान करते थे इसलिए विद्वान् लोग उन्हें सार्थक नामसे मानस्तम्भ कहते थे ॥१००-१०२॥ जो अनेक प्रकारके कमलोंसे सहित थीं, जिनमें स्वच्छ जल भरा हुआ था और जो भव्य जीवोंकी विशुद्धताके समान जान पड़ती थीं ऐसी बावड़ियाँ उन मानस्तम्भोंके समीपवर्ती भूभागको अलंकृत कर रही थीं ॥१०३।। जो. फूले हुए सफेद और नीले कमलरूपी सम्पदासे सहित थीं ऐसी वे बावड़ियाँ इस प्रकार सुशोभित हो रही थीं मानो भक्तिपूर्वक जिनेन्द्रदेवकी लक्ष्मीको देखनेके लिए पृथ्बीने अपने नेत्र हो उघाड़े हों ॥१०४।। जिनपर भ्रमरोंका समूहा बैठा हुआ है ऐसे फूले हुए नीले और सफेद कमलोंसे ढंकी हुई वे बाकड़ियाँ ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो अंजनसहित काले और सफेद नेत्रोंसे ही ढंक रही हो ॥१०५।। वे बावड़ियाँ एक एक दिशामें चार-चार थीं और उनके किनारेपर पक्षियोंकी शब्द करती हुई पंक्तियाँ बैठी हुई थीं जिनसे वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो उन्होंने शब्द करती हुई।
१. मानस्तम्भचतुष्टयम् । २. मातस्तम्भव्याजात् । ३. मूल । बुध्नं प्रतिष्ठिताः ल०, म० । ४. ताडयमान । ५. सन्मूलाः । ६. इन्द्रध्वजसंशया प्राप्तप्रसिद्धयः । ७. महाप्रमाणयोगात् । ८. पूजात् । ९. विशुद्धिपरिणामाः । १०. उन्मीलिताः । ११. वाप्यः । १२. विकसनशीलः। १३. सिताम्भोजः । १४. सकज्जलैः । १५. श्लथाः।