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द्वाविंशं पर्व बभुस्ता मणिसोपानाः स्फटिकोच्चतटीभुवः । भुवः प्रसृतलावण्यरसाः कुल्या इव भुताः ॥१०॥ द्विरेफगुजनैर्मन्जु गायन्त्यो वाहतो गुणान् । नृत्यन्त इव जैनेशजयतोषान्महोमिमिः ॥१०॥ कुर्वन्स्यो वा जिनस्तोत्रं चक्रवाकविकूजितः । संतोषं दर्शयन्स्यो वा प्रसन्मोदकधारणात् ॥१०९॥ नन्दोत्तरादिनामान: सरस्यस्तास्तटश्रितैः । पादप्रक्षालनाकुण्डः बभुः सप्रसवा इव ॥११०॥ स्तोकान्तरं ततोऽतीत्य तां महीमम्बुजश्चिता । परिवग्रेऽन्तरां वीथीं वीथीं च जलखातिका ॥११॥ स्वच्छाम्बुसंभृता रेजे सा खाता पावनी नृणाम् ।'सुरापगेव तद्रपा विभु सेवितुमाश्रिता ॥११२॥ 36 ताशेषतार संप्रतिबिम्बाम्बरश्रियम् । याधारस्फटिकसन्द्रा"वशुचिभिः सलिल शा ॥११३॥ सा स्म रत्नतटैर्धत्ते पक्षिमालां कलस्वनाम् । तरङ्गकरसंधाया रसनामिव "सगुचिम् ॥११४॥ यादोदोघंहनोदभूतैस्तरङ्गः पवनाहतैः । प्रनृत्यन्तीव सा रेजे तोषाज्जिनजयोत्सवे ॥१५॥
ढीली करधनी ही धारण की हो ॥१०६। उन बावड़ियोंमें मणियोंकी सीढ़ियाँ लगी हुई थीं, उनके किनारेकी ऊँची उठी हुई जमीन स्फटिकमणिकी बनी हुई थी और उनमें पृथिवीसे निकलता हुआ लावण्यरूपी जल भरा हुआ था, इस प्रकार वे प्रसिद्ध बावड़ियाँ कृत्रिम नदीके समान सुशोभित हो रही थीं ॥१८७॥ वे बावड़ियाँ भ्रमरोंकी गुंजारसे ऐसी जान पड़ती थीं मानो अच्छी तरहसे अरहन्त भगवान्के गुण ही गा रही हों, उठती हुई बड़ी-बड़ी लहरोंसे ऐसी जान पड़ती थीं मानो जिनेन्द्र भगवानकी विजयसे सन्तुष्ट होकर नृत्य ही कर रही हों, चकवा-चकवियोंके शब्दोंसे ऐसी जान पड़ती थीं मानो जिनेन्द्रदेवका स्तवन ही कर रही हों, स्वच्छ जल धारण करनेसे ऐसी जान पड़ती थीं मानो सन्तोष ही प्रकट कर रही हों, और किनारेपर बने हुए पाँव धोनेके कुण्डोंसे ऐसी जान पड़ती थीं मानो अपने-अपने पुत्रोंसे सहित हो हाँ, इस प्रकार नन्दोत्तरा आदि नामोंको धारण करनेवाली से बावड़ियाँ बहुत ही अधिक सुशोभित हो रही थीं ॥१०८-११०।। उन बावड़ियोंसे थोड़ी ही दूर आगे जानेपर प्रत्येक वीथी (गली) को छोड़कर जलसे भरी हुई एक परिखा थी जो कि कमलोंसे व्याप्त थी और समवसरणकी भूमिको चारों ओरसे घेरे हुए थी ॥१११।। स्वच्छ जलसे भरी हुई और मनुष्योंको पवित्र करनेवाली वह परिखा ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो परिखाका रूप धरकर आकाशगंगा ही भगवान्की सेवा करनेके लिए आयी हो ॥११२॥ वह परिखा स्फटिकमणिके
न्दके समान स्वच्छ जलसे भरी हई थी और उसमें समस्त तारा तथा नक्षत्रोंका प्रतिविम्ब पड़ रहा था, इसलिए वह आकाशकी शोभा धारण कर रही थी ॥११३।। वह परिखा अपने रत्नमयी किनारोंपर मधुर शब्द करती हुई पक्षियोंकी माला धारण कर रही थी जिससे ऐसी जान पड़ती थी मानो लहरोंरूपी हाथोंसे पकड़ने योग्य, उत्तम कान्तिवाली करधनी ही धारण कर रही हो ॥११४॥ जलचर जीवोंकी भुजाओंके संघट्टनसे उठी हुई और वायु-द्वारा ताड़ित हुई लहरोंसे वह परिखा ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो जिनेन्द्र भगवान्के विजयो
....... भूतलात् । २. कृत्रिमा सरित् । ३. प्रसिद्धाः । सूताः द०। ४. इव । ५. नन्दोत्तरा नन्दा नन्दवती नन्दघोषा इति चतस्रो वाप्यः पूर्वमानस्तम्भस्य पूर्वादिदिक्षु प्रदक्षिणक्रमेण स्युः। विजया वैजयन्ती जयन्त्यपराजिता इति चतस्रः दक्षिणमानस्तम्भस्य पूर्वादिदिक्षु तथा स्युः । शोका सुप्रतिबुद्धा कुमुदा पुण्डरीका इति चतस्रः पश्चिममानस्तम्भस्य पूर्वादिदिक्षु प्रदक्षिणक्रमेण स्युः । हृदयानन्दा महानन्दा सुप्रबुद्धा प्रभंकरीति चतस्रः उत्तरमानस्तम्भस्य पूर्वादिदिक्षु स्युः । ६. एकैकां वापी प्रति पादप्रक्षालनार्थकुण्डद्वयम् । ७. सपुत्राः । ८. वीथिवीथ्योमध्ये, मार्गद्वयमध्ये इत्यर्थः । 'हाधिक्समयानिकषा' इत्यादि सूत्रेण द्वितीया । ९. खातिका । १०. पवित्रीकुर्वती। ११. आकाशगंगा । १२. खातिकारूपा । १३. संलग्न । १४. तारकानक्षत्र । १५. द्रवम् । १६. सद्रुचम् ल०, म० ।