________________
द्वात्रिंशं पर्ष
५१५ स्फुरन्मस्कताम्भोजरागालोक कलम्वितैः । क्वचिदिन्द्रधनुलेखां लागणे गणयनिय neon क्वचित्पयोजरागेन्द्रनीलालोकै परिष्कृतः । परागसात्कृतैर्मळ कामक्रोधांशकैरिव ॥८॥ कचिक चित्तजन्मासौ लीनो जाल्मों विलोक्यताम् । निर्दागोऽस्माभिरित्युच्चानार्चिष्मानिवोस्थितः। विमाम्यते स्मयः प्रोरीवलन् "रोक्मै रजश्चयः । यथोचावचरत्नांशुजालजटिलयसमः ॥१०॥ चतसृष्वपि विश्वस्य हेमस्तम्मानलम्बिताः । तोरणा "मकरास्योटरस्नमाला विरेजिरे ॥११॥ ततोऽन्तरन्तरं किंचिद् गत्वा हाटकनिर्मिताः । रेजमध्येषु वीथीनां मानस्तम्माः समुच्छ्रिताः ॥१२॥ चतुर्गापुरसंबद्धसाकत्रितयवेष्टिताम् । जगती जगतीनाथस्नपनाम्बुपवित्रिताम् ॥१३॥ हैमषोडशसोपानां स्वमध्यार्षितपीटिकाम् । "न्यस्तपुप्पोपहारामियो'" भूसुरवानः ॥९॥ भधिष्ठिता विरजस्ते मानस्तम्मा नमोलिहः । दूराद्वीक्षिता मानं स्तम्भवन्त्याशु दुर्दशाम" ॥१५॥ नमापको महामाना" घण्टामिः परिवारिताः । सचामरध्वजा रडः स्तम्मास्ते दिग्गजायिताः ॥१६॥ थी (परिहार पक्षमें-अनुरागसे युक्त कर रहा था) ॥८६॥ कहींपर परस्पर में मिली हुई मरकतमणि और पद्मरागमणिको किरणोंसे वह ऐसा जान पड़ता था मानो आकाशरूपी
आँगनमें इन्द्रधनुषको शोभा ही बढ़ा रहा हो ॥८७॥ कहींपर पद्मरागमणि और इन्द्रनीलमणिके प्रकाशसे व्याप्त हुआ वह धूलीसाल ऐसा जान पड़ता था मानो भगवान के द्वारा चूर्ण किये गये काम और क्रोधके अंशोंसे ही बना हो ॥८॥ कहीं-कहींपर सुवर्णकी धूलिके समूहसे देदीप्यमान होता हुआ वह धूलीसाल ऐसा अच्छा जान पड़ता था मानो 'वह धूर्त कामदेव कहाँ छिपा है उसे देखो, वह हमारे द्वारा जलाये जानेके योग्य है' ऐसा विचारकर ऊँची उठी हुई अग्निका समूह हो। इसके सिवाय वह छोटे-बड़े रत्नोंको किरणावलीसे आकाशको भी व्याप्त कर रहा था ।। ८९-९० ।। इस धूलीसालके बाहर चारों दिशाओंमें सुवर्णमय खम्भोंके अप्रभागपर अवलम्बित चार तोरणद्वार सुशोभित हो रहे थे, उन तोरणोंमें मत्स्यके आकार बनाये गये थे और उनपर रत्नाकी मालाएं लटक रही थीं ॥९१।। उस धूलीसालके भीतर कु दूर जाकर गलियोंके बीचो-बीचमें सुवर्णके बने हुए और अतिशय ऊँचे मातस्तम्भ सुशोभित हो रहे थे। भावार्थ-चारों दिशाओंमें एक-एक मानस्तम्भ था IR२॥ जिस जगतीपर मानस्तम्भ थे वह जगती चार-चार. गोपुरद्वारोंसे युक्त तीन कोटोंसे घिरी हुई थी, उसके बीच में एक पीठिका थी। वह पीठिका तीनों लोकोंके स्वामी जिनेन्द्रदेवके अभिषेकके जलसे पवित्र थी, उसपर चढ़नेके लिए सुवर्णकी सोलह सीढ़ियाँ बनी हुई थीं, मनुष्य देव-दानव आदि सभी उसकी पूजा करते थे और उसपर सदा पूजाके अर्थ पुष्पोंका उपहार रखा रहता था, ऐसी उस पीठिकापर आकाशको स्पर्श करते हुए वे मानस्तम्भ सुशोभित हो रहे थे जो दूरसे दिखाई देते ही मिथ्यादृष्टि जीवोंका अभिमान बहुत शीघ्र नष्ट कर देते थे ॥९३-९५ ॥ वे मानस्तम्भ. आकाशका स्पर्श कर रहे थे, महाप्रमाणके धारक थे, घण्टाओंसे घिरे हुए थे, और चमर तथा ध्वजाओंसे सहित थे इसलिए ठीक दिग्गजोंके समान
१. परागकान्तिभिः । २. मिश्रितः। ३. 'गुणयन्निव' इति पाठान्तरम् । द्विगुणीकुर्वन्निक । वर्धयनिवेत्यर्थः । ४. किरणः। ५. अलंकृतः । ६. चूर्णीकृतः । ७. सर्वशेन । ८. नोचः । 'विवर्णः पामरो नीचः प्राकृतश्च पृथगजनः । विहीनो पशवो जाल्मः क्षुल्लकश्चेतरश्च सः।' इत्यभिधानात् । अथवा 'असमीक्ष्यकारी।' 'जाल्मोऽसमीक्ष्यकारी स्यात' इत्यभिधानात । तथा हि-'चिरप्रवजित: स्थविरः श्रुतपारगः । तपस्वीति यतो मास्ति गणनाविषमायुधे इत्युक्तत्वात असमीक्ष्यकारीति वचनं व्यक्तं भवति । ९. गर्वः। १०. सौवर्णः । '११. मकरमुखधृतः, मकरालङ्कारकीतिमुखधृत इत्यर्थः । १२. अभ्यन्तरे । १३. रचित । १४. पूजाम् । .१५. मिथ्यादृष्टीनाम् । १६. महाप्रमाणाः।