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आदिपुराणम् विषयोजनविस्तारमभूदास्थानमीशितुः । हरिनीलमहारत्नघटितं विलसत्तलम् ॥७॥ सुरेन्द्रनीलनिर्माणं समवृत्तं तदा बमौ । त्रिजगच्छीमुखालोकमलादर्शविभ्रमम् ॥४॥ आस्थानमण्डलस्यास्य विन्यास कोऽनुवर्णयेत् । सुत्रामा सूत्रधारोऽभूनिर्माणे यस्य कर्मठः ॥७९॥ तथाप्य यते किंचिदस्य शोमासमुच्चयः । श्रुतेन येन संप्रीति मजेद् मन्यात्मनां मनः ॥८०॥ तस्य पर्यन्तभूभागमलंचके स्फुरद्युतिः । पूलीसाळपरिक्षेपो रत्नपांसुमिराचितः ॥४१॥ .. धनुरेन्द्रमिवोद्भासिवलयाकृतिमुहहत् । सिषेवे तां महीं विध्वग्धूलीसालापरेशतः ॥८२॥ कटीसूत्रभियं तस्वन् धूलीसालपरिच्छदः" । परीयाय" जिनास्थानभूमि तां वलयाकृतिः ॥४३॥ क्वचिदम्जनपुजाभः क्वचिशमीकरच्छविः । क्वचिद् विलुमसच्छायः "सोऽद्युतद् रत्नपांसुमिः ॥८॥ क्वचिच्छुक छदच्छायमणिपांसुभिरुच्छिखैः । स रेजे "नकिनीवालपलाशैरिव सान्ततः ॥५॥
चन्द्रकान्तशिलाचूर्णः क्वचिज्ज्योत्स्नाभियं दधत् । जनानामकरोचित्रमनुरक्ततर" मनः ॥८६॥ ऐसा भगवान् वृषभदेवका समवसरण देवोंने दूरसे ही देखा ॥७६।। जो बारह योजन विस्तारवाला है और जिसका तलभाग अतिशय देदीप्यमान हो रहा है ऐसा इन्द्रनील मणियोंसे बना हुआ वह भगवानका समवसरण बहुत ही सुशोभित हो रहा था ।। ७७॥ इन्द्रनील मणियोंसे बना और चारों ओरसे गोलाकार वह समवसरण ऐसा जान पड़ता था मानो तीन जगत्की लक्ष्मीके मुख देखने के लिए मंगलरूप एक दर्पण ही हो ।।७८|| जिस समवसरणके बनाने में सब कामों में समर्थ इन्द्र स्वयं सूत्रधार था ऐसे उस समवसरणको वास्तविक रचनाका कौन वर्णन कर सकता है ? अर्थात् कोई नहीं, फिर भी उसकी शोभाके समूहका कुछ थोड़ा-सा वर्णन करता हूँ क्योंकि उसके सुननेसे भव्य जीवोंका मन प्रसन्नताको प्राप्त होता है ॥७९-८०॥ उस समवसरणके बाहरी भागमें रत्नोंकी धूलिसे बना हुआ एक धूलीसाल नामका घेरा था जिसकी कान्ति अतिशय देदीप्यमान थी और जो अपने समीपके भूभागको अलंकृत कर रहा था।॥८॥ वह धूलीसाल ऐसा अच्छा जान पड़ता था मानो अतिशय देदीप्यमान और वलय (चूड़ी) का आकार धारण करता हुआ इन्द्रधनुष ही धूलीसालके बहानेसे उस समवसरण भूमिकी सेवा कर रहा हो ॥४२॥ कटिसूत्रको शोभाको धारण करता हुआ और वलयके आकारका वह धूलीसालका घेरा जिनेन्द्रदेवके उस समवसरणको चारों ओरसे घेरे हुए था ॥८॥ अनेक प्रकारके रत्नोंकी धूलिसे बना हुआ वह धूलीसाल कहीं तो अंजनके समूहके समान काला-काला सुशोभित हो रहा था, कहीं सुवर्णके समान पीला-पीला लग रहा था और कहीं मूंगाकी कान्तिके समान लाल-लाल भासमान हो रहा था ।।४।। जिसकी किरणें ऊपरकी ओर उठ रही हैं ऐसे, तोतेके पंखोंके समान हरित वर्णकी मणियोंकी धूलिसे कहीं-कहीं व्याप्त हुआ वह धूलीसाल ऐसा अच्छा सुशोभित हो रहा था मानो कमलिनीके छोटे-छोटे नये पत्तोंसे हो व्याप्त हो रहा हो ।।८५।। वह कहीं-कहींपर चन्द्रकान्तमणिके चूर्णसे बना हुआ था और चाँदनीकी शोभा धारण कर रहा था फिर भी लोगोंके चित्तको अनुरक्त अर्थात लाल-लाल कर रहा था यह भारी आश्चर्यकी बात
१. - मभादास्थान म०, ल० । २. शिल्पाचार्यः । ३. कर्मशूरः । ४. अनुवक्ष्यते । ५. शोभासंग्रहः । ६. आकर्णनेन । ७. समवसरणस्थलस्य । ८. वलयः । ९. व्याजातं । १०. परिकरः। ११. परिवेष्टयति स्म । १२. धूलीशालः । १३. कीरपक्ष । १४. कमलकोमलपत्रैः। १५. सम्यग्विस्तृतः। १६. तीयानुरागसहितम्, ध्वनावरुणिमाक्रान्तम् ।