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द्वाविंशं पर्व
रेजे 'सहमकक्ष्योऽसौ हेमवल्लीवृताद्रिवत् । नक्षत्रमालयाक्षिप्त शरदम्बरविभ्रमः ॥ ४७॥
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[ षभिः कुलकम् ]
3 ग्रैवेयमालया कण्ठं स वाचालितमुद्वहन् । पक्षिमालावृतस्याद्विनितम्बस्य श्रियं दधौ ॥ ४८ ॥ घण्टाद्वयेन रेजेऽसौ सौवर्णेन निनादिना । सुराणामवबोधाय जिनाचमिव घोषयन् ॥ ४९ ॥ जम्बूद्वीप विशालोरुकायश्रीः स सरोवरान् । कुलाद्रीनिव बनेऽसौ रदानायामशालिनः ॥ ५० ॥ श्वेतिम्ना' वपुषः श्वेतद्वीपलक्ष्मीमुबाह सः । चलस्कैलासशैलाभः प्रक्षरन्मद निर्झरः ॥२१॥ इति व्यावर्णितारोह परिणाह वपुर्गुणम् । गजानीकेश्वरश्चक्रे महैरावतदन्तिनम् ॥ ५२ ॥ तमैरावणमारूढः सहस्राक्षोऽयुतत्तराम् । पद्माकर इवोत्फुल्लपङ्कजो गिरिमस्तके ॥ ५३ ॥ द्वात्रिंशद्वदनान्यस्य प्रत्यास्यं च रदाष्टकम् | 'सरः प्रतिरदं 'तस्मिन्नब्जिन्येका सरः प्रति ॥ ५४ ॥ द्वात्रिंशत्प्र सवास्तस्यां ' ' तावत्प्रमितपत्रकाः । तेष्वायतेषु देवानां नर्तक्यस्तत्प्रमाः पृथक् ।। ५५ ।। नृत्यन्ति सलयं स्मेरवक्त्राब्जा ललितभ्रवः । "पश्चाच्चित्तद्रुमे पूच्चैर्न्य स्यम्त्यः प्रमदाङकुरान् ॥५६॥
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अभिलाषी भ्रमरोंके द्वारा उपासित ( सेवित ) हो रहा था || ४६ || उसके वक्षःस्थलपर सोनेकी साँकल पड़ी हुई थी जिससे वह ऐसा जान पड़ता था मानो सुवर्णमयी लताओंसे ढका हुआ पर्वत ही हो और गलेमें नक्षत्रमाला नामकी माला पड़ी हुई थी जिससे वह अश्विनी आदि नक्षत्रोंकी मालासे सुशोभित शरदऋतु के आकाशकी शोभाको तिरस्कृत कर रहा था ॥४७॥ जो गलेमें पड़ी हुई मालासे शब्दायमान हो रहा है ऐसे कण्ठको धारण करता हुआ वह हाथी पक्षियोंकी पक्ति से घिरे हुए किसी पर्वत के नितम्ब भाग (मध्य भाग ) की शोभा धारण कर रहा था ||४८|| वह हाथी शब्द करते हुए सुवर्णमयी दो घण्टाओंसे ऐसा जान पड़ता था मानो देवोंको बतलानेके लिए जिनेन्द्रदेवकी पूजाकी घोषणा ही कर रहा हो ।। ४९ ।। उस हाथीका शरीर जम्बूद्वीपके समान विशाल और स्थूल था तथा वह कुलाचलोंके समान लम्बे और सरोवरोंसे सुशोभित दाँतोंको धारण कर रहा था इसलिए वह ठीक जम्बूद्वीपके समान जान पड़ता था ॥ ५०॥ वह हाथी अपने शरीरकी सफेदीसे श्वेतद्वीपकी शोभा धारण कर रहा था और झरते हुए मदजलके निर्झरनोंसे चलते-फिरते कैलास पर्वत के समान सुशोभित हो रहा था ॥ ५१॥ इस प्रकार हाथियोंकी सेनाके अधिपति देवने जिसके विस्तार आदिका वर्णन ऊपर किया जा चुका है ऐसा बड़ा भारी ऐरावत हाथी बनाया ॥ ५२॥ जिस प्रकार किसी पर्वत के शिखरपर फूले हुए कमलोंसे युक्त सरोवर सुशोभित होता है उसी प्रकार उस ऐरावत हाथीपर आरूढ़ हुआ इन्द्र भी अतिशय सुशोभित हो रहा था ॥ ५३॥| उस ऐरावत हाथीके बत्तीस मुख थे, प्रत्येक मुख में आठ-आठ दाँत थे, एक-एक दाँतपर एक-एक सरोवर था, एक-एक सरोवर में एक-एक कमलिनी थी, एक-एक कमलिनीमें बत्तीस-बत्तीस कमल थे, एक-एक कमल में बत्तीस-बत्तीस दल थे और उन लम्बे-लम्बे प्रत्येक दलोंपर, जिनके मुखरूपी कमल मन्द हास्यसे सुशोभित हैं, जिनकी भौंहें अतिशय सुन्दर हैं और जो दर्शकों के चित्तरूपी वृश्नोंमें आनन्दरूपी अंकुर उत्पन्न करा रही हैं ऐसी बत्तीस-बत्तीस अप्सराएँ लय
१. हेममयवरत्रासहितः । २ परिवेष्टित । ३. कण्ठभूषा । ४. जिनपूजाम् । ५. अतिशुभ्रत्वेन । ६. उत्सेधविशाल । ७. चतुर्गुणम् द०, प०, अ०, स० म०, ल० । 'इ०' पुस्तकेऽपि पार्श्वे 'चतुर्गुणम्' इति पाठान्तरं लिखितम् । ८. एकैकसरोवरः । ९. सरसि । १०. अब्जिन्याम् । ११. प्रेक्षकानां मनोवृक्षेषु । १२. प्रक्षिपन्त्यः । कुर्वन्त्य इति यावत् ।